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दिया । वर्षाऋतु के धारापात को जैसे वृक्ष सहन नहीं कर सकते उसी भाँति बलवान् वीरों के प्रहार को शत्रु सहन नहीं कर सका । पृथु राजा सैन्य सहित पीछे हटने लगे और युद्ध छोड़कर भागने लगे। यह देखकर लवण और अंकुश हँसते हुए उससे बोले - 'तुम प्रख्यातवंशी होकर भी हमारे जैसे अज्ञात कुल वालों को पीठ दिखा कर क्यों भाग रहे हो ?' ( श्लोक ५४-५८) यह सुनकर पृथु राजा पीछे फिरकर नम्रतापूर्वक बोले'आपका पराक्रम देखकर अब आपके कुल को जान लिया है । राजा वज्रज'ङ्घ ने अकुश के लिए मेरी कन्या की माँगकर मेरी भलाई ही की है । कारण, ऐसा वीर पात्र तो खोजने पर भी नहीं मिलता । ऐसा कहकर राजा ने उसी समय अपनी कन्या अंकुश को देने का वचन दिया । स्वकन्या कनकमाला के पति अंकुश ही हों, ऐसी इच्छा कर राजा पृथु ने समस्त राजाओं के सम्मुख वज्रजङ्घ से सन्धि कर ली । राजा वज्रजङ्घ वहीं छावनी डालकर अवस्थित हो गए । ( श्लोक ५९-६२ ) एक दिन वहाँ नारद मुनि आए । वज्रजङ्घ राजा ने उनका उचित आदर-सत्कार किया । तदुपरान्त वे समस्त राजाओं के सम्मुख नारद मुनि से बोले, 'हे मुनि ! पृथु राजा अपनी कन्या अंकुश को देना चाह रहे हैं; किन्तु इनके मन में लवण और अंकुश के कुल के सम्बन्ध में सन्देह है । अत: आप इनके कुल का पृथु राजा को परिचय दें ताकि वे सन्तुष्ट हो जाएँ ।' ( श्लोक ६३-६५ ) नारद हँसकर बोले, 'इनके कुल को कौन नहीं जानता ? जिस कुल की उत्पत्ति के प्रथम अकुर भगवान् ऋषभ हैं । जिस कुल में कथा - प्रसिद्ध भरतादि चक्रवर्ती राजा हुए और इस समय जिस कुल में राम-लक्ष्मण राज्य कर रहे हैं उस कुल को कौन नहीं जानता ? ये लोग जिस समय गर्भ में थे उसी समय अयोध्या के अधिवासियों के कलंक लगाने से राम ने भयभीत होकर सीता का त्याग कर दिया ।' (श्लोक ६६-६८)
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अंकुश हँसकर बोल उठा, 'हे महामुनि ! राम ने सीता को परित्याग कर ठीक नहीं किया । कलंक दूसरे रूप में भी दूर किया जा सकता था । राम ने पण्डित होकर भी ऐसा कार्य कैसे किया ? " लवण ने पूछा, 'वह अयोध्या यहाँ से कितनी दूर है, जहाँ मेरे पिता