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हुए अपने प्रासाद में चले गए। राम कृतान्तवदन से बोले, 'सम्मेत शिखर की यात्रा के बहाने तुम सीता को वन में ले जाओ। सीता की ऐसी इच्छा भी है।
(श्लोक ३०३-३०६) ___ कृतान्तघदन ने सम्मेत शिखर की यात्रा की बात जाकर सीता से कही। सीता सहमत हो गई। कृतान्तवदन उन्हें रथ में बैठाकर ले गया।
(श्लोक ३०८) जाते समय सीता ने बहुत से अपशकुन देखे । फिर भी सरलता के कारण वह शान्त रूप से बैठी रही। वे बहुत दूर चले गए। चलते-चलते वे गङ्गासागर उतरकर सिंह निनाद नामक वन में गए। रथ को वहां रखकर कृतान्तवदन कुछ सोचने लगा। सोचते-सोचते उसका मुंह उतर गया। आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे।
श्लोक ३०८-३१०) यह देखकर सीता बोली, 'हे सेनापति ! हृदय में क्या भयानक शोक का आघात लगा है जो तुम इस प्रकार दु:खी होकर स्थिर हो गए हो ?'
(श्लोक ३११) कृतान्तवदन ने कहा, 'माँ ! मैं दुर्वचन किस प्रकार बोलू ? मैं सेवकत्व से दूषित हूं। इसीलिए मुझे यह अकृत्य करना पड़ता है। देवी, आप राक्षस के घर रही लोग इसके लिए आपको कलङ्कित कर रहे हैं। गुप्तचरों ने देव राम को लोग आप पर जो कलङ्क लगा रहे हैं वह सुनाया। सुनकर राम आपका परित्याग करने के लिए प्रस्तुत हो गए हैं। लक्ष्मण लोगों पर कुपित हुए। उन्होंने राम को ऐसा करने से बहुत रोका; किन्तु राम ने उन्हें आज्ञा देकर ऐसा करने से रोक दिया। लक्ष्मण रोते-रोते वहाँ से चले गए। तब प्रभु ने मुझे यह कार्य करने की आज्ञा दी। हे देवि, मैं महापापी हूं, इसीलिए मैं आपको हिंस्र श्वापद युक्त मृत्यु के गृह रूप इस अरण्य में छोड़कर जा रहा हूं। आप केवल अपने प्रभाव से ही इस अरण्य में बच सकेंगी।'
(श्लोक ३१२-३१५) सेनापति की बात सुनकर सीता मूच्छित होकर रथ से नीचे गिर पड़ी। सेनापति उसे मृत समझकर एवं स्वयं को पापी समझ कर करुण स्वर में क्रन्दन करने लगा।
(श्लोक ३१६) कुछ क्षणों पश्चात् वन की शीतल हवा से सीता की चेतना लौटी; किन्तु वह पुनः मूच्छित हो गई। इस प्रकार बार-बार