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अष्टाक्षरी विद्या को दो प्रहर में ही सिद्ध कर ली। तदुपरान्त वे सोलह अक्षरी विद्या, जो कि दस हजार जाप में सिद्ध होती है, सिद्ध करने के लिए जाप करने लगे।
(श्लोक २२-२८) उसी समय जम्बूद्वीप के अधीश्वर अनाहत नामक यक्ष अन्तःपुरिकाओं को लेकर उस वन में क्रीड़ा करने आए एवं वहाँ उन लोगों को देखकर वे अपना मन्त्र सिद्ध न कर सके इसलिए अनुकूल उपसर्ग की सृष्टि कर अपनी अन्त:पुरिकाओं को वहाँ भेजा। वे उन्हें लब्ध करने आई थीं; किन्तु उनका रूप और यौवन देखकर स्वयं ही लुब्ध होकर अपने पति की बात भूल गईं और उन्हें मौन, स्थिर, निविकारी देख कर कामातुर बनी बोलने लगी, 'आर्य, आप लोग क्यों ध्यान में जड़ होकर बैठे हैं ? एक बार आँख खोलकर हमारी ओर देखने का प्रयत्न करें। हम देव कन्याएँ आपके वशीभूत हो गई हैं। इससे अधिक आप और क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? अब विद्या-सिद्धि के लिए प्रयत्न क्यों ? उसकी क्या आवश्यकता है ? जबकि देवियाँ ही आपके वशीभूत हो गई हैं तो आप विद्या लेकर क्या करेंगे? हे देवोत्तमगण, तीन लोक के सबसे अधिक रमणीय प्रदेश में जाकर अभी तो हमारे साथ यौवन सुख भोग करिए।
(श्लोक २९-३५) अत्यन्त मधुर भाव से सम्बोधन करने पर भी वे तीनों धैर्यशाली भाई जरा भी विचलित नहीं हुए। इससे वे देवियाँ ही लज्जित हो गईं। कहा भी है-एक हाथ से ताली नहीं बजती।
(श्लोक ३६) जम्बूद्वीपाधिपति यक्ष तब वहाँ जाकर कहने लगा, 'मुग्धों, इस प्रकार जड़ बनने की चेष्टा तुम लोग क्यों कर रहे हो ? लगता है किसी अप्रामाणिक भ्रान्त मतावलम्बी ने अकाल मृत्यु के लिए तुम लोगों को ऐसे कार्य में प्रवत्त किया है। अतः यह दुराग्रह छोड़ो और मुझसे कुछ मांगो। मैं तुम लोगों की इच्छा पूर्ण करूंगा।' इतना कहने पर भी जब वे मौन हो रहे तब क्रुद्ध होकर वह यक्ष उनसे बोला, 'मूों, अपने सम्मुख खड़े देव की उपेक्षा कर तुम लोग और किसका ध्यान कर रहे हो ?' ऐसा कहकर उस देव ने भृकुटि द्वारा अपने अनुचरों को उन पर आक्रमण करने का संकेत किया। तब वे लोग किल-किल करते हुए विविध रूप धारण