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मां की यह बात सुनकर विभीषण का मुख क्रोध से भयंकर हो उठा। वह बोला- 'मां, दुःखी मत हो वर्ना तुम अपने पुत्रों के पराक्रम को नहीं जानती । हे देवी, महाबलशाली अग्रज दशानन के आगे इन्द्र भी क्या और वैश्रवण भी क्या ? अन्य बली विद्याधरों की तो बात ही छोडिए। सुप्त सिंह जिस प्रकार गजेन्द्र की गर्जन सहन करता है, उसी प्रकार वस्तु स्थिति से अज्ञात होने के कारण उन्होंने लङ्का में शत्रुओं के अवस्थान को इतने दिनों तक सहन किया। आर्य दशानन के अतिरिक्त कुम्भकर्ण ही इन शत्रुओं को निःशेष करने में समर्थ हैं। इतना ही नहीं, क्या मेरे अग्रज यदि मुझे आदेश दें तो मैं हो वज्रपात को तरह शत्रुओं पर पतित होकर उनका नाश कर सकता हूं।'
(श्लोक १३-१७) ___ यह सुनकर रावण निचले होठों का दंशन करता हुआ बोला, 'मां, सचमुच ही तुम्हारा हृदय वज्र की तरह कठोर है । तभी तो इतने दिनों तक इस दुःख को हृदय में वहन करती आ रही हो। इन्द्रादि विद्याधरों को तो मैं केवल हाथों से ही मर्दन कर सकता हैं। शस्त्र के बदले शस्त्र की तो बात ही क्या ? कारण, वे मेरे लिए तृणवत् है । यद्यपि मैं बाहुवल से उन्हें पराजित कर सकता हूं फिर भी विद्या जो कुलक्रमागत है उसका व्यवहार ही उपयुक्त है। उन अनन्य विद्याओं को मैं अधिगत करूगा। अतः माँ, आदेश दो अपने अनुजों सहित मैं उन विद्याओं की साधना करूं।'
__ (श्लोक १८-२१) ऐसा कहकर उसने माता-पिता को प्रणाम किया। मातापिता ने उसका मस्तक चूमा। तदुपरान्त वह अनुज सह भयङ्कर महावन में चला गया। वह महावन समीप के वृक्षों पर स्थित सरिसप और अजगरों की नि:श्वास से कांपता रहता, गवित बाघों की पूछ के आघात से पृथ्वी दीर्ण-विदीर्ण होती रहती। वृक्षों से उत्थित वहद-वहद उल्लओं के चीत्कार से सर्वत्र भय सा छाया रहता । नत्यरत भूत-प्रेतों के चरणाघात से पर्वतों के शिलाखण्ड टूट-टूट कर गिरते रहते । श्वापद संकुल उस वन में प्रवेश करते देव भी डरते थे। ऐसे महावन में तपस्वियों की भाँति जटा मुकुट धारण कर हाथ में अक्षमाला लेकर श्वेत वस्त्र पहनकर नासाग्र पर दृष्टि रखकर तीनों भाइयों ने सर्व अभिष्ट प्रदानकारी