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'मथरा के पूर्व में कूवेरोद्यान नामक एक उद्यान है। मधुराजा अभी वहाँ गए हैं और अपनी पत्नी जयन्ती के साथ विहार कर रहे हैं। उनके साथ युद्ध करने का यही उपयुक्त समय है।'
(श्लोक १६७-१६९) छल के विज्ञाता शत्रुघ्न ने रात्रि के समय मथुरा में प्रवेश किया और अपनी सेना द्वारा मधु के आने के पथ को अवरुद्ध कर दिया। युद्ध आरम्भ हुआ। राम-रावण के युद्ध में लक्ष्मण ने जिस प्रकार खर को मारा उसी प्रकार शत्रुघ्न ने मधु के पुत्र लवण को मार डाला। महारथी मधु पुत्र निधन पर क्रोधित होकर धनुष उठाए शत्रुघ्न से युद्ध करने के लिए अग्रसर हए। दोनों में युद्ध आरम्भ हुआ। दोनों ही शस्त्र चला रहे थे और दोनों ही एक-दूसरे के अस्त्र काट रहे थे। दोनों में देव और दानव की भाँति बहुत देर तक शस्त्र युद्ध चलता रहा। दशरथ पुत्र शत्रुघ्न ने तब लक्ष्मण द्वारा प्रदत्त अर्णवावर्त धनुष और अग्निमुख बाण को स्मरण किया। स्मरण मात्र से वे उनके हाथ में आ गए। धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर अग्नि मुख बाण द्वारा शिकारी जैसे सिंह पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार शत्रुघ्न शत्र पर प्रहार करने लगे। बाण के आघात से व्याकुल होकर मधु सोचने लगा-इस समय मेरे हाथ में त्रिशूल नहीं है। इसीलिए मैं शत्र को मार नहीं सका। मैंने कभी जैनेन्द्र पूजा भी नहीं की और नहीं चैत्य निर्माण और दान-पुण्य किया फलतः मेरा जीवन व्यर्थ चला गया। ऐसा विचार कर मधु ने भाव चारित्र ग्रहण किया और नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करते हुए मृत्यु प्राप्त कर सनत्कुमार देवलोक में मद्धिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। उसी समय मधु की देह पर विमानवासी देवों ने पुष्प वृष्टि की और 'मधु देव की जय हो' कहकर जय घोषणा की।
(श्लोक १७०-१७९) देवता रूपी त्रिशूल चमरेन्द्र के पास लौट गया और शत्रुघ्न ने मधु को हत्या किस प्रकार छल से की पूरा वृतान्त सुनाया। अपने मित्र वध की बात सुनकर चमरेन्द्र ने शत्रु को मारने के लिए प्रस्थान किया, वेणुदारी नामक गरुड़ पति ने उनसे पूछा, 'आप कहाँ जा रहे हैं ?' उन्होंने प्रत्युत्तर दिया 'मेरे मित्र की हत्या करने