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देशभूषण केवली बोले, 'भगवान् ऋषभ ने चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। बाद में जब वे मौन और निराहार रहकर (शुद्ध आहार पानी न मिलने से) विहार करने लगे। तब सब राजा क्लिनष्ट होकर वनवासी हो गए। उनमें प्रह्लादन और सुप्रभ राजा के चन्द्रोदय और सुरोदय नामक दो पुत्र थे । वे बहुत दिनों तक भवभ्रमण करते हुए अनुक्रम से चन्द्रोदय गजपुर में हरिमती राजा की रानी चन्द्रलेखा के गर्भ से कुलङ्कर नामक पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किया। सुरोदय भी उसी नगर में विश्वभूति नामक ब्राह्मण की पत्नी अग्निकुण्डा के गर्भ से जन्म ग्रहण किया और श्रतिरति नाम से प्रसिद्ध हआ।' (श्लोक ११२-११७)
'कुलङ्कर राजा हो गए। एक दिन वे एक तापस के आश्रम में जा रहे थे। उन्हें अभिनन्दन नामक अवधिज्ञानी मुनि बोले, 'हे राजन्, तुम जिसके पास जा रहे हो वह तापस पंचाग्नि तप कर रहा है। तप के लिए लाए काष्ठ में एक सर्प है। वह सर्प पूर्वभव में क्षेमङ्कर नामक तुम्हारे पितामह थे। इसलिए उस काष्ठ को सावधानीपूर्वक चीरकर उस सर्प की रक्षा करो।' मुनि की बात सुनकर राजा व्याकुल हो उठे। वे तत्काल वहाँ गए और काष्ठ चीर कर मुनि के कथनानुसार वहाँ सर्प देखकर विस्मित हो उठे । कुलङ्कर राजा की इच्छा दीक्षा लेने की हो गई। उसी समय श्रतिरति ब्राह्मण भी वहाँ आया और कहने लगा, 'तुम्हारा यह धर्म आम्नाय रहित नहीं है फिर भी यदि दीक्षा लेनी है तो अन्तिम समय में लेना । इस समय क्यों दुःख वरण कर रहे हो ?'
(श्लोक ११८-१२३) 'श्रुतिरति की बात सुनकर राजा की दीक्षा लेने की इच्छा नष्ट हो गई। वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा विचार करते हुए संसार में ही रह गया। उसकी श्रीदामा नामक एक रानी थी। वह श्रतिरति पुरोहित पर आसक्त थी। एक दिन उस दुर्मति रानी के मन में भय उत्पन्न हआ कि उसके और श्रुतिरति का अवैध सम्बन्ध राजा को ज्ञात हो गया है । उसने इस भय को सत्य समझा। उसने सोचा, राजा असन्तुष्ट होकर उसे मार डालेंगे। इसलिए वे मुझे मारें उसके पूर्व ही उन्हें मार देना उचित होगा। तदुपरान्त श्रीदामा ने श्रुतिरति से परामर्श कर अपने पति कुलङ्कर को मार डाला।