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मैं तो एक मुष्ठि-प्रहार से ही चक्र और शत्रुओं को चूर-चूर कर
___ (श्लोक ३७२-३७४) . ऐसे गवित वचन बोलने वाले रावण पर लक्ष्मण ने चक्रप्रहार किया। चक्र ने कुष्माण्ड पिष्टक की तरह रावण के वक्ष को विदीर्ण कर डाला। उस दिन ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी थी। हृदय विदीर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त कर रावण चतुर्थ नरक में गया। देव जयध्वनि करते हुए लक्ष्मण पर पुष्प वष्टि करने लगे । वानरसेना हर्षोन्मत्त होकर नाचने लगी। उनकी किलकारियों से पृथ्वी और आकाश भर उठा।
(श्लोक ३७५-३७७) सप्तम सर्ग समाप्त
प्रष्टम सर्ग रावण की मृत्यु हुई। समस्त राक्षस व्याकुल होकर सोचने लगे कि अब भागकर कहाँ जाएँ ? विभीषण स्नेहवश स्व-जाति भ्राताओं के निकट गए और उनके भयभीत हृदयों को यह कहकर शान्त किया—'हे राक्षस वीरो! ये राम और लक्ष्मण (पद्म और नारायण) अष्टम बलदेव और वासुदेव हैं। ये शरण में आए हुए के लिए शरणदाता भी हैं। अतः निःशङ्क होकर इनकी शरण ग्रहण करो।'
__ (श्लोक १-२) विभीषण के वचन सुनकर समस्त राक्षस वीर राम की शरण में आए। राम और लक्ष्मण ने उन्हें उदार आश्रय दिया। वीर पुरुष प्रजा पर समान दृष्टि रखते हैं। विभीषण को स्व अग्रज रावण की मृत्यु पर अत्यन्त शोक हुआ। 'हे भाई, हे अग्रज' कहते हुए वे करुण-क्रन्दन करने लगे। अग्रज के वियोग दुःख से तो मृत्यु श्रेष्ठ है। ऐसा सोचकर मरने की इच्छा से विभीषण कमर से कटार निकाल कर उदर-विद्ध करने को उद्यत हो गए। राम उसी क्षण उनका हाथ पकड़ कर समझाने लगे-'हे विभीषण ! रणस्थल में वीरोचित वीरगति प्राप्त स्व-अग्रज रावण के लिए व्यर्थ शोक मत करो। जिस वीर से युद्ध करने में देव भी शङ्का करते थे वही वीर आज वीरत्व दिखाकर अपनी कीर्ति को स्थापित कर वीरगति को प्राप्त हुआ है। ऐसे बन्धु के लिए शोक कैसा? अतः