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वानर वीरों ने धक्का देकर उसे वहां से निकाल दिया। सामन्त ने राम-लक्ष्मण ने जो कुछ कहा था वह जाकर रावण से निवेदन कर दिया। यह सुनकर रावण मन्त्रियों से बोला, 'अब क्या करना उचित है।'
(श्लोक ३२१-३२२) मन्त्रियों ने पूर्व के अनुसार ही परामर्श दिया- 'अब सीता को लौटा देना ही उचित है। राम के प्रतिकूल जाकर जो परिणाम हुआ वह तो आपने देख ही लिया अब उनके प्रतिकूल जाकर उसका परिणाम भी देख लीजिए। व्यतिरेक प्रतिकूल और अन्वय अनुकूल द्वारा ही समस्त कार्यों की परीक्षा होती है। इसलिए हे राजन्, आप केवल व्यतिरेक के पीछे ही क्यों पड़े रहते हैं ? अभी भी आपके अनेक बन्धु-बान्धव पुत्र बचे हुए हैं । अतः सीता राम को लौटाकर उनकी रक्षा करें और उनके साथ राज्य सम्पदा भोग करें।
(श्लोक ३२३-३२५) सीता लौटाने के परामर्श पर रावण मर्माहत हो गया। वह बहत देर तक बैठा विचार करता रहा। बाद में बहरूपिणी विद्या की साधना को निश्चय कर मन्त्रियों को विदा दी। रावण वहां से उठकर शान्तिनाथ भगवान के चैत्य में गया। भक्ति-भाव से रावण का मुख प्रफुल्ल हो उठा। उसने इन्द्र की तरह जल कलश से शान्तिनाथ भगवान की मूर्ति को स्नान करवाया, गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया और दिव्य पुष्पों से उनकी पूजा कर शान्तिनाथ प्रभु की स्तुति करने लगा
(श्लोक ३२६-३२९) _ 'जगत् के त्राता देवादिदेव परमात्मा स्वरूप षोडश तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ प्रभु को मैं नमस्कार करता हूं।
'संसार सागर के वाणकर्ता हे शान्ति नाथ, सर्वार्थसिद्धि के लिए मन्त्र रूप आपके नाम को भी मैं नमस्कार करता हैं।
'हे प्रभो, जो आपकी अष्ट प्रकारी पूजा करते हैं वे अणिमादि अष्टसिद्धियों को प्राप्त करते हैं।
वे नेत्र धन्य हैं जो प्रतिदिन आपका दर्शन करते हैं। नेत्र से भी वे हृदय धन्य हैं जो हृदय में आपको धारण किए रहते हैं।
_ 'हे देव, आपके चरण-स्पर्श मात्र से ही प्राणी निर्मल हो जाते हैं। स्पर्शबोधि रस के स्पर्श से क्या लौह स्वर्ण नहीं हो जाता?