________________
198]
पास भेजा कि तुम साम, दाम और दण्ड नीति का आश्रय लेकर राम को समझाओ। दूत राम की छावनी में गया । द्वारपाल ने राम को इसके आने की सूचना दी। राम ने उसे बुलवाया । सुग्रीवादि वीरों के मध्य उपविष्ट राम को उसने आकर नमस्कार किया और गम्भीर भाव से बोला, 'महाराज रावण ने कहलवाया है कि मेरे बन्धुवर्ग को मुक्त कर दो और सीता मुझे अर्पण कर दो। इसके बदले मेरा आधा राज्य ग्रहण करो ! मैं तुम्हें तीन हजार कन्याएँ उपहार स्वरूप दूँगा । यदि तुम इससे सहमत नहीं होते हो तो तुम्हारा जीवन और तुम्हारी सेना कुछ भी नहीं बचेगी ।'
( श्लोक ३०८-३११) राम ने प्रत्युत्तर में कहा, 'दूत, मुझे राज्य सम्पत्ति की इच्छा नहीं है, न मुझे अन्य स्त्रियों की भोग की लालसा है । यदि रावण अपने बन्धुबान्धवों को मुक्त करवाना चाहता है तो उसके लिए उचित है कि सीता की पूजा कर उसे मेरे पास भेज दे । अन्यथा कुम्भकर्ण आदि को मुक्त नहीं किया जाएगा ।' (श्लोक ३१२ - ३१३) सामन्त बोला, 'हे राम, ऐसा करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है । मात्र एक स्त्री के लिए तुम क्यों अपना जीवन संशय में डाल रहे हो । रावण के प्रहार से लक्ष्मण एक बार बच गया है; किन्तु अब वह आशा मत करो । रावण अकेला ही समस्त विश्व को जय कर सकता है, अतः उसकी बात स्वीकार कर लो अन्यथा उसका परिणाम होगा तुम्हारा, लक्ष्मण का व इस वानर सेना का जीवन नाश ।' ( श्लोक ३१४-३१६)
यह सुनकर लक्ष्मण क्रुद्ध हो उठे । वे बोले, 'हे अधम दूत, अब भी क्या रावण अपनी और अन्य की शक्ति का परिमाप नहीं कर सका ? उसका समस्त परिवार या तो मारा गया है या बन्दी बना लिया गया है । स्त्रियां ही अवशेष हैं । फिर भी वह अपने मुख से अपनी बढ़ाई करता है । यह इसकी कैसी धृष्टता है ? वृक्ष की समस्त शाखा प्रशाखाओं के कट जाने पर स्कन्ध रूप वृक्ष जिस प्रकार खड़ा रहता है उसी प्रकार रावण भी परिवार रूपी शाखा प्रशाखाओं से हीन होकर अकेला रह गया है ।'
( श्लोक ३१७-३२० ) इसके प्रत्युत्तर में सामन्त कुछ कहने ही जा रहा था कि