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अस्त्र से प्रहार करने लगा। दोनों महाबाहु वीरों में कल्पान्त काल की तरह दारुण और जगत् को क्षुब्ध करने वाला भयङ्कर युद्ध प्रारम्भ हो गया। शस्त्रवर्षाकारी वे दोनों ऐसे लग रहे थे मानो माकाश से पुष्करावर्त मेघ वारि-वर्षण कर रहा हो । एक के अस्त्र अन्य पर अनवरत प्रतिहत हो रहे थे। इससे जल-जन्तुओं में जिस प्रकार समुद्र पाच्छादित होता है उसी प्रकार अल्प समय में ही आकाशमण्डल आच्छादित हो गया। (श्लोक ३७८-३८२)
दुनिवार रावण-पुत्र ने जितने भी अस्त्र निक्षेप किए मारुतिपुत्र हनुमान ने उससे द्विगुणित शर निक्षेप कर उन्हें विफल कर दिया। राक्षस योद्धा भी हनुमान के अस्त्रों से क्षत-विक्षत हुए। उनकी देह से रक्तधारा प्रवाहित होने लगी। उन्हें देखकर लगा मानो जङ्गम पर्वत से रक्त प्रवाहित हो रहा है। (श्लोक ३८३-३८४)
इन्द्रजीत ने स्व-सैनिकों को विनष्ट और अन्य अस्त्रों को विफल होते देखकर उन पर नागपाश अस्त्र निक्षेप कर दिया। चन्दनवक्ष जिस प्रकार सर्पो द्वारा वेष्टित होता है उसी प्रकार उस दृढ अस्त्र में हनुमान पैरों से सिर तक वेष्टित हो गए। यद्यपि नागपाश को काटने एवं शत्रुओं पर जयलाभ करने का सामर्थ्य हनुमान में था फिर भी बन्धक द्वारा कौतुक दिखाने की इच्छा से वे उसी प्रकार वेष्टित रहे। इन्द्रजीत ने आनन्दित होकर उन्हें रावण के सम्मुख उपस्थित किया। विजय की इच्छा रखने वाले राक्षस हर्षित होकर उन्हें देखने लगे। श्लोक ३८५-३८८)
रावण हनुमान से बोला, 'हे दुर्मति ! तूने यह क्या किया ? बेचारे राम-लक्ष्मण तो जन्म से ही मेरे आश्रित हैं। वनवासी, फलाहारी, मलिनदेही, किरात की तरह अपना जीवन व्यतीत करने वाले वे यदि तुम पर प्रसन्न भी होते हैं तो तुझे क्या दे सकते हैं ? हे मन्दबुद्धि, क्या समझ कर तू राम-लक्ष्मण के कहने से यहाँ आया? देख, यहाँ आते ही तेरा जीवन विपन्न हो गया। भूचारी राम-लक्ष्मण बड़े चतुर लगते हैं जो तेरे द्वारा उन्होंने ऐसा कार्य करवाया; किन्तु धूर्त तो वे ही हैं जो अन्य के हाथों अङ्गार बाहर करवाते हैं। अरे, पहले तो तू मेरा सेवक था और अब दूसरे का सेवक बनकर आया है । इसलिए तू अवध्य है; किन्तु तुझे तेरे कृत्यों