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तेरे पति की तरह तेरा मुख भी देखने योग्य नहीं है। हे दुष्टा! खर मादि राक्षसों को मारने की तरह अब तेरे पति और देवरों को मारने के लिए राम लक्ष्मण मा गए हैं । सोच ले, मैं उनके चरणों में पहुंच गई हूं। हे पापिष्ठा ! यहाँ से उठ और तुरन्त यहाँ से चली जा। मैं तुझसे बात भी नहीं करना चाहती।' सीता द्वारा इस प्रकार तिरस्कृत होकर मन्दोदरी उसी समय वहाँ से चली गई।
(श्लोक ३३९-३४१) उसके जाते ही हनुमान प्रकट हुए और करबद्ध होकर सीता को नमस्कार कर बोले-'हे देवी ! सौभाग्य से राम, लक्ष्मण सहित कुशल हैं। उनकी आज्ञा से आपको खोजने मैं यहां आया हूं। मेरे लौटने पर राम शत्रु संहार के लिए यहाँ आएंगे।
(श्लोक ३४२-३४३) आँखों में अश्रु भरकर सीता बोली, 'हे वीर ! तुम कौन हो? इस दुर्लंघ्य समुद्र को पार कर तुम यहाँ कैसे आए? मेरे प्राणनाथ लक्ष्मण सहित आनन्द में तो हैं ? तुमने उन्हें कहाँ देखा हैं ? वे वहाँ अपना समय कैसे व्यतीत कर रहे हैं ?' (श्लोक ३४४-३४५)
हनुमान बोले, 'मैं पवनञ्जय का पुत्र हूं । अञ्जना मेरी माता हैं। मेरा नाम हनुमान है। आकाशगामिनी विद्या से मैंने समद्र का अतिक्रम किया है। राम ने सुग्रीव के शत्रु का संहार किया है । इसलिए इस समय वे उनके वश में अवस्थित हैं। दावानल जिस प्रकार पर्वत को तप्त करता है उसी प्रकार राम अन्य को तापित करते हुए आपके विरह में रात-दिन तप्त हो रहे हैं। हे स्वामिनी, गाय के बिना बछड़ा जिस प्रकार व्याकुल हो जाता है उसी प्रकार लक्ष्मण सहित आपके दुःख से कातर हो गए हैं और निरन्तर शून्य दृष्टि से आकाश को देखते रहते हैं। उन्हें लेशमात्र भी दुःख नहीं है। कभी शोक से, कभी क्रोध से राम और लक्ष्मण सर्वदा दुःखी रहते हैं। सुग्रीव उन्हें बहुत आश्वासन देते हैं; किन्तु इससे उन्हें शान्ति नहीं मिलती। जिस प्रकार देवगण इन्द्र की सेवा करते हैं उसी प्रकार भामण्डल, महेन्द्र, विराध आदि खेचर अनुचर की भाँति रात-दिन उनकी सेवा करते रहते हैं। हे देवी! आपके अनुसन्धान के लिए सुग्रीव ने मुझे उपयुक्त बताया है । अतः राम ने आपकी मुद्रिका देकर मुझे यहाँ भेजा है। प्रतिदान में उन्होंने मापसे