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ने वह रात्रि लङ्का सुन्दरी के साथ क्रीड़ा करके व्यतीत की।
. (ग्लोक २९९-३०८) भोर होते ही इन्द्र की प्रिय (पूर्व) दिशा को मण्डित कर स्वर्णसूत्र-सा किरण युक्त सूर्य उदित हुआ । सूर्य-किरणों ने अविरल गिरकर विकसित कुमुद को मुदित कर दिया। जाग्रत होने पर रमणियों ने अपनी वेणियां खोलीं अतः फूल धरती पर बिखर गए। भ्रमर उन फूलों पर गुजन करने लगे। लगा मानो फूल केशपाश के वियोग में क्रन्दन कर रहा हो। खण्डिता नायिका के मुख से जिस प्रकार (दुःखार्त) निःश्वास निकलता है उसी प्रकार रात्रि जागरण करने के कारण रक्त-नेत्रा गणिकाएँ कामी जन के घर से निकलने लगीं। उदित सूर्य के तेज ने जिनका कान्ति-वैभव लूट लिया था ऐसा चन्द्रमा लता-तन्तुओं के वस्त्र-सा दिखाई देने लगा । जिस अन्धकार को समस्त ब्रह्माण्ड धारण नहीं कर पा रहा था उस अन्धकार को सूर्य ने उसी प्रकार उड़ा दिया जैसे प्रचंड वायु मेघ को उड़ा देती है। रात्रि की निद्रा दूर हो जाने से नगरवासी अपने-अपने कार्य में लग गए। (श्लोक ३०९-३१६)
भोर होते ही पराक्रमी हनुमान ने लङ्कासुन्दरी से मधुर वचन द्वारा विदा ली और लङ्का में प्रवेश कर गए। तदुपरान्त वीरधाम एवं शत्रु सैन्य के लिए भयङ्कर हनुमान ने विभीषण के घर में प्रवेश किया। विभीषण ने उनका सत्कार कर आने का कारण पूछा। हनुमान ने गम्भीर भाव एवं अल्प शब्दों में उनसे कहा, 'रावण सीता को हरण कर लाया है। आप उसके छोटे भाई हैं। अतः शुभ परिणाम विचार कर राम की पत्नी सीता को उसके हाथ से मुक्त कराएँ। यद्यपि रावण बलवान् है फिर भी उसने राम पत्नी का हरण किया है। एतदर्थ परलोक में ही नहीं इस लोक में भी उसकी दुर्गति होगी।'
(श्लोक ३१७-३२१) __ विभीषण बोले, 'हे हनुमान, तुम जो कुछ कह रहे हो वह ठीक है। मैंने अपने अग्रज से सीता को छोड़ देने का अनुरोध आगे भी किया था अब फिर आग्रह करूगा। इस बार यदि वे मेरे कहने से सीता को छोड़ दें तो बहुत अच्छा होगा।'
(श्लोक ३२२-३२३) तदुपरान्त वहां से उड़कर हनुमान जहां सीता थी उसी