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आकाश कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। यहां तक कि अपना हाथ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था । खड्ग से काले अन्धकारमय आकाश में नक्षत्र पुंज ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो पाशा खेलने के पट्ट पर कौड़ियां बिखेर दी गई हों। काजल-सा श्याम और नक्षत्रमय आकाश पुण्डरीक कमल से यमुना-दह को स्मरण कराता था । जब अन्धकार चारों ओर व्याप्त हो गया । तब आलोकहीन समस्त चराचर पाताल-से लगने लगे । अन्धकार बढ़ जाने पर दूतियां नागर की सन्धान में निःशङ्क होकर स्वच्छन्द विचरण करने लगीं, जैसे समुद्र में नदियां विचरण करती हैं । अभिसारिकाओं ने नुपुरों को घुटने तक चढ़ा लिया ( जिससे शब्द न हों) और कस्तूरी का विलेपन लगा तथा श्याम वस्त्र धारण कर इधर-उधर विचरण करने लगीं । ( श्लोक २८१-२९२)
और अपसृयबनाने चन्द्र के
उसी समय उदयगिरि के शिखर पर किरण रूपी अंकुर का महाकन्दभूत चन्द्र उदित हुआ । उसे देखकर लगा मानो किसी भव्य प्रासाद पर स्वर्ण कलश स्थापित किया गया है मान अन्धकार स्वाभाविक शत्रुताजन्य कलङ्क के साथ द्वन्द्वयुद्ध कर रहा है । विस्तृत गोकुल में जैसे वृष विचरण करते हैं उसी प्रकार विस्तृत आकाश में चन्द्र तारिकाओं के मध्य विचरण करने लगा । चन्द्र की देह पर लगा कलङ्क ऐसा लग रहा था मानो रजत पात्र में कस्तूरी रख दी गई है । चन्द्र से निकली किरणें ऐसी लग रही थी मानो विरही जनों ने कामदेव के तीर को हस्त- लाघव से स्खलित कर दिया है। चिरभुक्ता; किन्तु सूर्यास्त के कारण दुर्दशाग्रस्त कमलिनी का परित्याग कर भ्रमरगण अब कुमुद की स्तुति कर रहे हैं । नीचों की मित्रता को धिक्कार ! चन्द्र स्व-किरणों को गिराकर शेफाली फूल को झराता हुआ ऐसा लग रहा था मानो अपने मित्र कामदेव के लिए पुष्पशर तैयार कर दिया है । चन्द्रकान्त मणि के जल में नवीन सरोवर निर्माण कर चन्द्र तब ऐसा लग रहा था मानो सरोवर के बहाने अपनी कीति स्थापित कर रहा है । दिक्-समूह के मुख को निर्मल करने वाली ज्योत्स्ना ने; किन्तु इधर-उधर विचरण करती कुलटाओं का मुख पद्मिनी की तरह म्लान कर दिया। अतः निःशङ्क होकर हनुमान