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देखा । उस नगर को देखकर हनुमान के मन में आया यही नगर है जहाँ से मेरी निरपराध माँ को मामा ने निकाल दिया था । ऐसा सोचते ही वे क्रोधित हो उठे । अतः रणवाद्य बजा दिया | ब्रह्माण्ड को चूर्ण कर सके ऐसी आवाज उस वाद्य से निकल कर दिशाओं में फैल गई । ( श्लोक २३७-२३९) शत्रु की ऐसी शक्ति देखकर इन्द्र से पराक्रमी राजा महेन्द्र भी सैन्य और पुत्रों को लेकर नगर के बाहर आए । दोनों में आकाश के बीच घनघोर युद्ध हुआ । आहत सैनिकों के कटे हुए अङ्ग-प्रत्यङ्ग जिनसे रक्त प्रवाहित हो रहा था धरती पर आकर गिरने लगे । देखकर लगा मानो प्रलयकाल का मेघ बरस रहा हो । रणक्षेत्र में तीव्र गति से घूमते हुए हनुमान, प्रबल वायु जैसे वृक्ष को भग्न कर देती है उसी प्रकार शत्रु के सैन्य को भङ्ग करने लगे । महेन्द्र राजा के पुत्र प्रसन्नकीर्ति उन्हें रोकने के लिए उनसे अपने सम्बन्ध न जानने के कारण निःशङ्क भाव से उन पर अस्त्र प्रहार करने लगे । दोनों समान बलवान् और समान शक्तिसम्पन्न थे । अतः एक-दूसरे को अस्त्रों से क्लान्त करने लगे । युद्ध करते-करते हनुमान ने सोचा, 'हाय, मुझे धिक्कार है ? जो प्रभु के कार्य में विलम्बकारी इस युद्ध को छेड़ बैठा । मुहूर्त मात्र में मैं इसे जीत सकता हूं; किन्तु ये मेरे मातृ- कुल के हैं । जो भी कुछ हो इस समय तो मुझे इन पर विजय प्राप्त करनी ही है । कारण युद्ध मैंने ही प्रारम्भ किया है ।' ( श्लोक २४०-२४६ ) इस प्रकार विचार कर हनुमान ने प्रसन्नकीर्ति को शस्त्र प्रहार से अस्त व्यस्त कर उनके शस्त्र, रथ और सारथी को नष्ट कर उन्हें पकड़ लिया । तदुपरान्त राजा महेन्द्र के निकट जाकर उन्हें प्रणाम कर बोले, 'मैं आपका भानजा हूं, सती अञ्जना का पुत्र । मैं राम की आज्ञा से सीता की खोज में लङ्कापुरी जा रहा था, राह में आपके इस नगर को देखा । एक समय आपने मेरी माँ को इस नगर से निष्कासित कर दिया था - यह बात मन में आते ही क्रोध में आकर मैं आपसे युद्ध करने को प्रवृत्त हो गया । आप मुझे क्षमा करें। मैं प्रभु राम के काम से जा रहा हूं। आप भी वहाँ जाएँ ।' ( श्लोक २४७ - २५० ) अपने वीर शिरोमणि भानजे को आलिङ्गन में लेकर राजा