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महेन्द्र बोले, 'लोगों के मुँह से इतने दिनों तक तुम्हारे पराक्रमी होने की बात ही सुनता आया हूं । आज भाग्य योग से तुम्हें स्वनेत्रों से देखा है । अब तुम शीघ्र स्वामी के कार्य को सम्पन्न करने जाओ । तुम्हारा पथ कल्याणमय हो ।' तब हनुमान ने लङ्का की ओर प्रस्थान कर दिया और राजा महेन्द्र स्व-सैन्य सहित राम के निकट गए । ( श्लोक २५१ - २५२ ) आकाश-पथ से जाते हुए हनुमान दधिमुख नामक द्वीप पर पहुंचे । वहाँ उन्होंने कायोत्सर्ग ध्यान में निमग्न दो मुनियों को देखा । उनके ही निकट उन्होंने तीन निर्दोष शरीरधारिणी कुमारी कन्याओं को देखा जो विद्या साधना में तत्पर होकर ध्यान कर रही थीं । उसी समय उस द्वीप में अकस्मात् दावानल प्रज्वलित हुआ । कुमारी कन्याओं तथा मुनियों के इस दावानल में भस्म हो जाने की सम्भावना के कारण स्वधर्मी वात्सल्य से प्रेरित हनुमान ने विद्या द्वारा समुद्र से जल लाकर जिस प्रकार मेघ जल बरसा कर अग्नि को शान्त करता है उसी प्रकार वारि-वर्षण कर उस दावानल को शान्त कर दिया । उसी समय उन कन्याओं को भी विद्या सिद्ध हो गई । तब उन्होंने ध्यानरत मुनियों को प्रदक्षिणा देकर हनुमान से कहा, 'हे परम अर्हत् भक्त ! आपने हमारी विपत्ति में रक्षा की है इसलिए हम आपकी कृतज्ञ हैं । आपकी सहायता से असमय में ही हमारी विद्या सिद्ध हो गई ।' ( श्लोक २५३-२५८ )
हनुमान ने पूछा, 'आप लोग कौन हैं ?' इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, 'इसी दधिमुख द्वीप में दधिमुख नामक एक नगर है । वहाँ गन्धर्वराज नामक एक राजा राज्य करते हैं । उनकी कुसुममाला नामक रानी के गर्भ से हम तीनों कन्याओं को जन्म हुआ । अनेक खेचरपतियों ने हमारे पिता से हमारे लिए प्रार्थना की । अङ्गारक नामक एक उन्मत्त खेचरपति ने भी हमारे लिए प्रार्थना की; किन्तु हमारे स्वाधीनचेता पिता ने हममें से किसी को भी उसे नहीं दिया और एक मुनि से पूछा कि इन कन्याओं का पति कौन होगा ? मुनि बोले, 'जो साहस गति नामक विद्याधर को मारेगा वही तुम्हारी कन्याओं का पति होगा ।" तब मेरे पिता उनकी खोज करने लगे; किन्तु उनका पता नहीं मिला । अतः वह कहाँ है यही जानने के लिए हम इस विद्या की साधना कर रही थीं । हमारी इस विद्या