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राजाओं को किसी अन्य उद्यम की आवश्यकता नहीं होती। अतः किसी वीर पुरुष को दूत के रूप में वहाँ भेजा जाए क्योंकि लङ्कापुरी में प्रवेश और निष्क्रमण उभय ही कठिन है। दूत पहले वहाँ जाकर विभीषण से मिले और सीता को लौटाने के लिए कहे। कारण, राक्षस कुल में वही एक मात्र नीतिज्ञ है। रावण यदि इस बात पर कान न दे तो वह आपके पास लौटकर आ जाएगा।'
- (श्लोक २१७-२२१) उनके कथन पर सहमत होने से सुग्रीव ने श्रीभूति के द्वारा हनुमान को बुलवा भेजा। सूर्य-से तेजसम्पन्न हनुमान ने तुरन्त आकर सभा में उपविष्ट राम को प्रणाम किया। सुग्रीव ने राम से कहा, 'पवनंजय के पुत्र हनुमान विपत्ति के समय हमारे एक मात्र साथी हैं। इनके समान विद्याधरों में कोई नहीं है। अतः सीता का संवाद लाने के लिए आप उनको भेजें।' (श्लोक २२२-२२५)
हनुमान ने कहा, 'विद्याधरों में मुझ से अनेक हैं। राजा सुग्रीव मेरे प्रति स्नेहवश ही ऐसा कह रहे हैं । गय, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, नील, द्विविद, जाम्बवन्त, अंगद, नल आदि अनेक विद्याधर यहाँ हैं, मैं भी उन्हीं में से एक हूं। यदि आप आदेश दें तो राक्षस द्वीप सहित लङ्का को उठाकर यहाँ लाऊँ या बान्धवों सहित रावण को बांधकर यहीं ले आऊँ।' (श्लोक २२६-२२९)
राम बोले, 'हनुमान, तुम में यह सब करने की शक्ति है; किन्तु अभी तुम यही करो कि लङ्का में जाकर सीता से मिलकर स्मारक के रूप में मेरी यह मुद्रिका उसे दे देना और उससे स्मृतिचिह्न रूप चूड़ामणि ले आना। उससे कहना देवी, आपके वियोग में राम अत्यन्त व्याकुल हैं। वे आपका सतत ध्यान करते हैं। आप राम के वियोग में प्राणों का परित्याग मत करिएगा। धैर्य रखें। चन्द दिनों में ही लक्ष्मण रावण को मारकर प्रापका उद्धार करेगा।' हनुमान बोले, 'प्रभ, आपकी आज्ञा का पालन कर मैं जब तक नहीं लौटू तब तक आप यहीं रहें।' ऐसा कहकर राम को नमस्कार कर अनुचरों सहित एक द्र तगामी विमान में बैठकर वे लङ्का की ओर प्रस्थान कर गए। (श्लोक २३०-२३६)
___ आकाश पथ से जाते हुए हनुमान क्रमशः महेन्द्रगिरि के शिखर पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने अपने मामा महेन्द्र का महेन्द्रपुर