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को शान्त कर उनके पीछे-पीछे वह राम के पास गया और भक्ति पूर्वक उन्हें प्रणाम किया। तदुपरान्त अपने सैनिकों को आदेश दिया, 'हे सैनिको, तुम सब पराक्रमी और सर्वत्र जाने में पूर्णतः समर्थ हो । अतः चारों ओर जाकर सीता की खोज करो।' ऐसी आज्ञा पाकर सुग्रीव के सैनिक समस्त द्वीप, पर्वत, वन, समुद्र और गुफाओं में सीता का सन्धान करने लगे। (श्लोक १९०-१९३)
.. सीता-हरण का संवाद सनकर भामण्डल रामचन्द्र के पास आए और दुःखी मन से वहीं रहने लगे। अपने प्रभु के दुःख में दुःखी विराध भी एक वृहद् सेना लेकर वहाँ आया और पुराने नौकर की तरह उनकी सेवा करते हुए वहीं रहने लगा।
(श्लोक १९४-१९५) सुग्रीव स्वयं भी सीता के सन्धान में निकला और अनुक्रम से कम्बूद्वीप में जा पहुंचा। उसे दूर से आते देखकर रत्नजटी सोचने लगा-क्या रावण ने मेरे अपराध का स्मरण कर मुझे मारने के लिए महावीर इस वानरपति सुग्रीव को भेजा है ? पराक्रमी रावण ने मेरी समस्त विद्याएँ तो पहले ही हरण कर ली हैं । अब यह वानर-पति मेरा प्राण-हनन करने आया है।'
(श्लोक १९६-१९८) रत्नजटी ऐसा सोच ही रहा था कि सुग्रीव उसके निकट पहुंचे और उससे बोले, 'रत्नजटी ! मुझे देखकर भी तुम खड़े क्यों नहीं हए? आगे बढ़कर मुझसे मिलने भी नहीं आए। क्या आकाश में उड़ने में आलस आ रहा है ?' रत्नजटी बोला, 'कपिराज ! ऐसा नहीं है। रावण जब सीता का हरण कर लिए जा रहा था तब मैंने उसे रोका। उसो समय उसने मेरी समस्त विद्याएँ हरण कर ली थीं।
(श्लोक १९९-२००) - यह सुनते ही सुग्रीव तत्काल उसे उठाकर राम के निकट ले आए। राम ने उससे सीता का वृत्तान्त पूछा । तब उसने सीता का वृत्तान्त कहना शुरू किया-'हे देव ! कर और दुरात्मा रावण सीता का हरण कर ले गया है। हे राम, हे वत्स लक्ष्मण, हे भाई भामण्डल-इस प्रकार पुकारती-रोती सीता के शब्द सुनकर मुझे रावण पर क्रोध आया। मैं उससे लड़ने गया। क्रुद्ध होकर उसने मेरी समस्त विद्याएँ हरण कर लीं।' (श्लोक २०१-२०२)