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तो आप ही हैं जो इतनी दूर की दृष्टि रखते हैं। जबकि प्रभु काम के वशीभूत हो गए हैं तब उन पर हमारे कहने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जिस प्रकार मिथ्या-दृष्टि मनुष्य पर जैन धर्म के उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सुग्रीव और हनुमान जैसे बलवान् पुरुष भी अब राम के साथ हो गए हैं। न्यायी महात्मा का पक्ष भला कौन नहीं लेता ? सीता के कारण हमारे कूलक्षय की बात नैमित्तकों ने कही थी फिर भी जो कुछ पुरुषार्थ के अधीन है, समयानुकल वही उपाय हमको करना चाहिए।' उनकी बात सुनकर विभीषण ने लङ्का के दुर्ग पर आवश्यक यन्त्र स्थापित किया । मन्त्रीगण विचार रूपी नेत्रों से अनागत को भी देखते हैं। (श्लोक १७७-१८१)
उधर सीता के विरह से पीड़ित राम, सुग्रीव प्रदत्त आश्वासन पर किसी प्रकार दिन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन उन्होंने लक्ष्मण को जो कुछ कहना था कहकर सुग्रीव के पास भेजा । लक्ष्मण तूणीर बांधकर एवं हाथ में धनुष और खड्ग लेकर सुग्रीव के निकट गए। अपने पदचाप से पृथ्वी को विदीर्ण, पर्वत को कम्पित और तीव्र वेग के कारण दोनों हाथों के झपाटे से राह के दोनों पार्श्व के वृक्षों को गिराते हए वे किष्किन्धा नगर पहुंचे। भकुटि के कारण जिनका ललाट भयङ्कर हो गया है और आँखें लाल हो रही थीं ऐसे लक्ष्मण को देखकर द्वारपालों ने भयभीत होकर राह छोड़ दी। तब लक्ष्मण सीधे सुग्रीव के अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए । लक्ष्मण का आना सुनकर कपिराज सुग्रीव तत्काल प्रासाद से बाहर निकले और मारे भय के काँपते-काँपते उनके सन्मुख जा खड़े हुए । तब लक्ष्मण क्रुद्ध कण्ठ से बोले, 'हे कपिराज, क्या तुमने अपना कर्तव्य पूर्ण कर लिया है जो निश्चिन्तमना अन्तःपुरिकाओं से परिवृत होकर सुख भोग रहे हो? उधर तुम्हारे प्रभु राम वृक्ष के नीचे बैठकर एक-एक दिन एक-एक वर्ष की भाँति व्यतीत कर रहे हैं। लगता है तुम अपनी प्रतिज्ञा भूल बैठे हो। अब भी जागो और सीता को खोजने का प्रयास करो। नहीं तो फिर जाओ साहसगति के पथ पर । वह पथ अभी भी बन्द नहीं हुआ है।' (श्लोक १८२-१८९)
___ लक्ष्मण की बात सुनकर सुग्रीव उनके चरणों में गिरकर बोला, 'हे आर्य, मेरा प्रमाद सहन कर मुझे क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हों। कारण आप भी मेरे प्रभु हैं। इस प्रकार लक्ष्मण