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[159 सीता अवश्य ही मेरी पत्नी बनेगी । तत्पश्चात् यदि राम और लक्ष्मण यहाँ आये तो मैं उनकी हत्या करूँगा ।' विभीषण बोला, 'हे अग्रज, नैमित्तिक ने कहा था, सीता के कारण हमारा कुल नष्ट होगा । नैमित्तिक का वही कथन लगता है सत्य होने वाला है । यदि ऐसा नहीं होता तो आप अपने अनुरक्त भाई के कथन को इस प्रकार नहीं टालते और मेरे द्वारा निहत दशरथ भी पुनः जीवित नहीं हो उठता । हे महाबाहु, जो भावी है वह अन्यथा नहीं होगी फिर भी मेरी आपसे प्रार्थना है, आप इस कुल विनाशिनी सीता को छोड़ दें ।' ( श्लोक १६०-१६६)
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मानो विभीषण की बात सुनी ही न हो, इस प्रकार रावण वहाँ से उठकर अशोक वृक्ष के नीचे से सीता को पुष्पक विमान में बैठाकर अपना ऐश्वर्य दिखाने लगा और कहने लगा, 'हे हंसगामिनी, रत्नमय शिखरयुक्त व मधुर जलस्रोतों से परिपूरित यह पर्वत मेरा क्रीड़ा पर्वत है । नन्दनवन - न से ये सभी उद्यान हैं, इच्छानुसार भोग करने योग्य ये धारागृह हैं, हंस सहित क्रीड़ा करने के लिए ये नदियाँ हैं । हे शुभ्र े, स्वर्ग तुल्य ये रतिगृह हैं इनमें जहाँ भी तुम्हारी इच्छा किन्तु सीता हंस की तरह राम के चरणों रावण के इस कथन को सुनकर भी उत्पन्न नहीं हुआ । समस्त रमणीय रावण ने पुनः सीता को अशोक वृक्ष ( श्लोक १६७ - १७२ ) जब विभीषण ने देखा कि रावण उन्मत्त हो गया है, वह मेरी बात सुनेगा नहीं, उसने उसी विषय की आलोचना के लिए कुल - प्रमुखों की सभा बुलवाई। उनके एकत्र होने पर विभीषण बोला, 'हे कुल - मन्त्रीगण, कामादि आन्तरिक शत्रु भुत की तरह विषम होते हैं । काम किसी भी प्रमादी मनुष्य को विवश कर देता है । हमारे प्रभु रावण अत्यन्त कामातुर हो गए हैं । एक तो काम ऐसे ही दुर्जय है, फिर यदि उसे पर स्त्री का आश्रय मिल जाए तो फिर कहना ही क्या ? उसी काम के कारण लङ्कापति अत्यन्त बलवान् होने पर भी शीघ्र ही अत्यन्त दुःख के समुद्र में डूब जाएँगे ।' (श्लोक १७३ - १७६) मन्त्रीगण बोले, 'हम तो केवल नाम के मन्त्री हैं वास्तविक
हो मेरे साथ क्रीड़ा करो; काही ध्यान करती रही किंचित् मात्र क्षोभ उसके मन स्थानों में भ्रमण कर अन्त में के नीचे छोड़ दिया ।
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