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था; किन्तु राम ने उसका वध कर दिया। अतः अब यही उचित है कि मैं पाताल लङ्का में जाकर राम और लक्ष्मण से मित्रता करूं। कारण, शरणागत विराध को उन्होंने तत्काल ही पाताल लङ्का का राज्य दे दिया और अभी वे पराक्रमी विराध के आग्रह पर वहीं अवस्थित हैं।'
(श्लोक ८६-९३) ऐसा सोचकर सुग्रीव ने अपने एक विश्वासपात्र दूत को एकान्त में बुलाकर सब कुछ समझाया और विराध के पास भेज दिया। दूत ने पाताल लङ्का में जाकर विराध को प्रणाम किया। अपने स्वामी का समस्त कष्ट निवेदित कर बोला, 'मेरे प्रभु सुग्रीव इस समय महान विपत्ति में हैं। एतदर्थ आपके माध्यम से वे रामलक्ष्मण की शरण में जाना चाहते हैं।' यह सुनकर विराध ने कहा, 'दूत ! तुम शीघ्र जाकर सुग्रीव से कहो कि वे तुरन्त यहाँ चले आएँ क्योंकि सत्पुरुषों का सङ्ग तो पुण्य से ही प्राप्त होता है।' दूत ने शीघ्र जाकर सुग्रीव को विराध की बात सुनाई। तब सुग्रीव अपने अश्व के गले के रत्नहार से दिक्समूह को गुञ्जित करता हुआ तीव्र वेग से दूरी को अदूरी में परिवर्तित कर क्षणमात्र में वहाँ इस प्रकार पहुंचा मानो एक घर से निकलकर दूसरे घर में गया हो।
(श्लोक ९४-९९) विराध ने सहर्ष उसका स्वागत किया। तदुपरान्त सुग्रीव को लेकर राम के निकट गया। सुग्रीव ने राम को प्रणाम किया। विराध ने तब सुग्रीव की समस्त कथा राम को कह सुनाई । सुग्रीव बोले, 'हे प्रभु ! जैसे छींक बन्द हो जाने सूर्य ही एक मात्र गति है उसी प्रकार आप ही मेरे गति और शरण हैं।' राम स्वयं स्त्रीवियोग से पीड़ित थे फिर भी सुग्रीव का दुःख दूर करने को सहमत हो गए। महापुरुष अपने कार्य से भी अन्य के कार्य करने में अधिक प्रयत्नवान् होते हैं।
(श्लोक १००-१०२) तदुपरान्त विराध ने सीता-हरण का सारा वृत्तान्त सुग्रीव को सुनाया। सुनकर सुग्रीव करबद्ध होकर बोला, 'हे देव ! विश्व की रक्षा करने में समर्थ आपको और जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्य को किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं होती फिर भी मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आपकी कृपा से मेरे शत्रु के विनष्ट हो जाने पर मैं सैन्य सहित आपका अनुचर बनकर अल्प समय में