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अपने परिवार को लेकर पाताल लंका में चले गए। ऐसी विकट परिस्थिति में भाग जाना ही एकमात्र उपाय होता है । महावत को मारकर जैसे हाथी शान्त हो जाता है वैसे ही अपने पुत्र घातक की हत्या कर अशनिवेग शान्त हो गया । शत्रु विनाश से हर्षित नवीन राज्य स्थापन में आचार्य से अशनिबेग ने लंका के सिंहासन पर निर्घात नामक एक खेचर को बैठाकर इन्द्र जैसे अमरावती को लौट जाता है वैसे ही वैताढ्य स्थित अपनी राजधानी रथनुपुर को लौट गया । कालान्तर में वैराग्य उत्पन्न होने से उसने अपने पुत्र सहस्रार को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । (श्लोक ७६-८८ ) उधर पाताल लंका में रहते हुए सुकेश की रानी इन्द्राणी के गर्भ से माली, सुमाली और माल्यवान ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए । किष्किधी के भी श्रीमाला के गर्भ से आदित्यरजा और रिक्षरजा नामक दो पराक्रमी पुत्र हुए । ( श्लोक ८९-९०) एक समय किष्किधी मेरु पर्वत स्थित शाश्वत जिनेश्वरों के दर्शन कर लौट रहा था । तब राह में मधु नामक एक पर्वत देखा । द्वितीयमेरु से उस पर्वत पर चारों ओर विस्तृत उद्यानों में उसने क्रीड़ा की । यह स्थान अच्छा लगने के कारण उत्साही किष्किंधी ने वहां किष्किsयपुर नामक एक नगर बसाया और सपरिवार उसी नगर में रहने लगा । ( श्लोक ९१-९३) सुकेश के तीनों पुत्रों को जब यह ज्ञात हुआ कि उनका राज्य शत्रुओं ने छीन लिया है तो वे तीनों तीन अग्नि की तरह प्रज्वलित हो उठे । वे तुरन्त लङ्का गए और निर्घात की हत्या कर स्वराज्य को पुनः प्राप्त कर लिया । माली लङ्का के राजा हुए और किष्किधी के कहने पर किष्किध्या पर आदित्यराज राज करने लगे ।
( श्लोक ९४-९६) वैताढ्य पर्वत के रथनुपुर में अशनिवेग के पुत्र सहस्रार की पत्नी चित्रसुन्दरी के गर्भ में कोई देव अवतीर्ण हुआ । कारण उसी समय उन्होंने मंगलकारी एक शुभ स्वप्न देखा । कुछ दिनों पश्चात् चित्रसुन्दरी को इन्द्र के साथ सम्भोग करने का दोहद उत्पन्न हुआ । किन्तु वह दोहद न तो पूर्ण करने योग्य था न बोलने योग्य । फलत: दोहद पूर्ण न होने के कारण उसका शरीर क्रमशः कृश होने लगा । सहस्रार ने जब अत्यन्त आग्रहपूर्वक उसके दुर्बल होने का कारण पूछा