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था । मन्दकर्मी हीन जाति के इनको यहां कौन बुला लाया है ? ये लोग भविष्य में फिर कभी यहां न आ जाएँ इसलिए आज मैं इनकी पशु की तरह हत्या करूँगा । ऐसा कहकर महाबली विजयसिंह उठकर खड़ा हो गया और अस्त्र उठाकर किष्किन्धी की हत्या करने के लिए यमराज की भांति उसकी ओर जाने लगा । अन्यान्य साहसिक विद्याधर जो कि साहसिक कार्य करने में पीछे नहीं रहते थे, वे भी उठ खड़े हुए। मुकेश आदि विद्याधरों ने किष्किन्धी का पक्ष लिया, अन्य विद्याधरों ने विजयसिंह का । उभय पक्ष में प्रलयात्मक युद्ध प्रारम्भ हो गया। हाथी के दांतों की रगड़ से निकलती चिनगारियाँ आकाश में चमकने लगीं, अश्वारोहियों के परस्पर बर्छाओं के आघात से बिजली गिरने जैसा कड़कड़ शब्द होने लगा । महारथियों के धनुषों की टंकार से आकाश गूंज उठा। सैनिकों की खड्गों के आघात से उनके मस्तक कटकर गिरने लगे । रक्त और शवों से पृथ्वी आवृत्त हो गई । कुछ क्षण इसी प्रकार युद्ध चलने के पश्चात् किष्किन्धी के छोटे भाई अन्धक ने वृक्ष से फल फेंकने की तरह एक तीर से विजयसिंह का मस्तक काट डाला । यह देखकर विजयसिंह की ओर के विद्याधर भय से विह्वल हो गए। सचमुच ही स्वामी के बिना शौर्य कहां ? नायकहीन सैन्यदल मृत तुल्य होता है । (श्लोक ६१-७५ )
युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् किष्किन्धी साक्षात् शरीरधारिणी जयलक्ष्मी-सी श्रीमाला, मित्र और अपनी सेना सहित आकाश - पथ से किष्किंधा लौट आए । अशनिवेग ने जब अकस्मात् वज्रपात -सी अपने पुत्र के निधन की खबर सुनी तो अपनी सेना लेकर किष्किन्धा आया और परिखा का जल जैसे नगर को घेरे रहता है उसी प्रकार अपने सैन्यदल से किष्किंधा को घेर लिया । सिंह जैसे अपनी गुफा से निकलता है उसी प्रकार अन्धक को साथ लेकर सुकेश और किष्किंधी नगर से बाहर आए । अत्यन्त क्रोध भरा अशनिवेग शत्रु को तृणवत समझकर युद्ध में प्रवृत्त हो गया। सिंह के समान बलवान और वीर पुत्रघातक अन्धक को क्रोधान्ध अशनिवेग ने युद्ध में मार डाला । यह देखकर हवा से जैसे मेघ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं वैसे ही वानर और राक्षस सेना छिन्नभिन्न हो गई । किष्किंधी और लंकापति अन्य उपाय न देख अपने