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वक्षदेश को विदीर्ण करने लगा। रावण ने भी क्रुद्ध होकर खड्ग के भयङ्कर वार से जटायु के डैनों को काटकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। तदुपरान्त निःशङ्क होकर सीता को पुष्पक विमान में बैठा कर अपना मनोरथ पूर्ण कर शीघ्रता के साथ आकाश-पथ से उड़ चला।
(श्लोक ४३८-४४२) 'शत्रु का मन्थन करने वाले हे नाथ रामचन्द्र ! हे वत्स लक्ष्मण ! हे पूज्य पिता ! हे महावीर भाई भामण्डल ! जिस प्रकार पूजा द्रव्यों को काक ले जाता है उसी प्रकार यह रावण बरबस तुम्हारी सीता का हरण कर ले जा रहा है।' इस प्रकार रोती हुई सीता ने आकाश और धरती को रुला दिया।
(श्लोक ४४३-४४४) राह में अर्कजटि के पुत्र रत्नकटि ने सीता का क्रन्दन सुना । वह सोचने लगा कि यह क्रन्दन अवश्य ही राम की पत्नी सीता का है। यह शब्द समुद्र पर भी सुना जा रहा है। इससे लगता है कि राम-लक्ष्मण को प्रतारित कर रावण सीता का हरण कर लिए जा रहा है। इसलिए मेरे लिए यह उचित है कि इसी समय सीता को मुक्त कर अपने प्रभु भामण्डल का कुछ उपकार करू ।'
(श्लोक ४४५-४४६) ऐसा सोचकर हाथ में खड्ग लिए रत्नजटि रावण की ओर दौड़ा। रत्नजटि का युद्ध-आह्वान सुनकर रावण हँसा और अपने विद्याबल से उसका समस्त विद्याबल हरण कर लिया। फलतः डैनेहीन पक्षी की तरह रत्नजटि विद्यारहित होकर कम्बूद्वीप के कम्बुगिरि पर जा गिरा। तब से वहीं रहने लगा।
(श्लोक ४४७-४४९) रावण जब विमान में बैठकर आकाश पथ से समुद्र को पार कर रहा था, उसी समय कामातुर बना सीता को अनुनय करता हुआ बोला-'हे जानकी! जो समस्त खेचर और भूलोक का स्वामी है उसकी यह महारानी का पद प्राप्त कर तुम क्यों क्रन्दन कर रही हो? आनन्दित होने के बजाय तुम क्यों शोक कर रही हो? मन्दभागी राम के साथ विधि ने तुम्हारा जो सम्बन्ध किया था वह अनुचित था। अतः जो उचित है मैंने वही कर दिया है। हे देवी ! सेवा में दास की भाँति तुम मुझे पति रूप में स्वीकार