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'दण्डक राजा संसार के कारण रूप अनेक भवों का भ्रमण कर पाप कर्म के फलस्वरूप गन्ध नामक यह महारोगी पक्षी बना । मुझे देखकर इसे जाति स्मरण-ज्ञान उत्पन्न हो गया । मैं स्पर्शो षध नामक लब्धि प्राप्त हूं, अतः मेरे स्पर्श से इसका समस्त रोग नष्ट हो गया है ।' ( श्लोक ३७१ - ३७२ ) इस प्रकार अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर पक्षी बहुत प्रसन्न हुआ। वह पुन: मुनि के चरणों में जा गिरा और धर्मश्रवण कर उसने श्रावक धर्म अङ्गीकार कर लिया । महामुनि ने उसकी इच्छा ज्ञात कर उसे जीवघात, मांसाहार और रात्रि भोजन का त्याग ( श्लोक ३७३ - ३७४ ) तदुपरान्त मुनि राम से बोले, 'यह पक्षी तुम्हारा स्वधर्मी है । स्वधर्मी बन्धु पर वात्सल्य भाव रखना कल्याणकारी है । ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है।' मुनि के वचन सुनकर राम ने 'यह मेरा परम मित्र है' कहकर मुनि को प्रणाम किया। मुनि वहाँ से आकाशपथ द्वारा अन्यत्र चले गए। राम, लक्ष्मण और सीता उसी जटायु पक्षी के साथ दिव्य रथ पर बैठकर क्रीड़ा करते हुए अन्यत्र विचरण करने लगे ।
करवाया ।
( श्लोक ३७५ - ३७७)
उसी समय पाताल लङ्का में खर और चन्द्रनखा के शम्बूक और सुन्द नामक दो पुत्र यौवनावस्था को प्राप्त हुए । माता-पिता के निषेध करने पर भी शम्बूक सूर्यहास नामक खड्ग प्राप्त करने के लिए दण्डकारण्य गया और वहाँ क्रौंचरेवा नदी के तट पर बाँस के झाड़ के मध्य जाकर अवस्थित हो गया और मन ही मन बोला, 'यहाँ रहते हुए यदि कोई मुझे साधना से च्युत करना चाहेगा तो में उसकी हत्या कर दूँगा । तदुपरान्त वह एकाहारी, विशुद्धात्मा, ब्रह्मचारी और जितेन्द्रिय शम्बूक वटवृक्ष की शाखा से अपने दोनों पाँव बांधकर अधोमुख होकर सूर्यहास खड्ग दानकारिणी विद्या का जप करने लगा । यह विद्या बारह वर्ष एवं सात दिनों तक जप करने से सिद्ध होती है । इस प्रकार उल्लू की भांति अधोमुख होकर साधना करते हुए बारह वर्ष और चार दिन बीत गए । सिद्ध होने की इच्छा से म्यान में रहा हुआ सूर्यहास खड्ग आकाश में आलोक और सुगन्ध बिखेरता हुआ बाँस के झाड़ के पास आया । ठीक उसी समय लक्ष्मण भी इधर-उधर घूमते हुए वहाँ पहुंचे ।