________________
140]
यन्त्र के सामने ले जाने लगे तब स्कन्दकाचार्य के मन में करुणा उत्पन्न हो गई । अतः वे पालक को बोले, 'पहले तुम मुझे पीसकर मार डालो. ताकि उस बाल-मुनि को पिसकर मरते मैं नहीं देख सकूँ । पालक, तुम मेरा इतना अनुरोध अवश्य मानो ।' किन्तु, स्कन्दकाचार्य के सम्मुख उस बालक मुनि को पीसकर मारने से उन्हें अधिक कष्ट होगा, सोचकर पालक ने उनकी बात न मानकर उनके सम्मुख ही उसे भी पीसकर मार डाला । ( श्लोक ३५८ - ३६१ ) सारे मुनि केवलज्ञान प्राप्त कर अक्षय पद को प्राप्त हो गए; किन्तु स्कन्दकाचार्य ने अन्त समय यह निदान किया कि 'यदि मेरी तपस्या का कोई फल है तो मैं दण्डक, पालक और उसके समस्त परिवार का नाश करने वाला बनूँ ।' ऐसा निदान करते हुए स्कन्दकाचार्य को उसने पीसकर मार डाला । मृत्यु प्राप्त कर वे उन्हें नष्ट करने के लिए कालाग्नि से वह्निकुमार देव रूप में उत्पन्न हुए । (श्लोक ३६२-३६४) रक्त-सना स्कन्दकाचार्य का रजोहरण जो रत्न कम्बल के धागों से बनाया गया था और जिसे पुरन्दरयशा ने उन्हें दिया था, एक पक्षी लेकर उड़ गया । पक्षी के दोनों पैरों से पूरी शक्ति से पकड़े हुए होने के बावजूद भी वह रजोहरण दैवयोग से स्खलित होकर देवी पुरन्दरयशा के सम्मुख जा गिरा ।
( श्लोक ३६५-३६६)
रजोहरण देखते ही वह उद्विग्न हो गई और भाई की खोज करवाने पर ज्ञात हुआ कि यन्त्र में पीसकर मुनियों सहित उनको मार डाला गया है । इससे वह अपने पति पर बहुत क्रोधित होकर बोल उठी, 'पापी ! तुम यह कैसा पाप कर बैठे ?' ठीक उसी समय शासनदेवी आकर पुरन्दरयशा को मुनि सुव्रत स्वामी के पास ले गई। वहाँ उसने तत्क्षण दीक्षा ग्रहण कर ली ।
( श्लोक ३६७-३६८) उधर अग्निकुमार ने निकाय में उत्पन्न होते ही स्कन्दकाचार्य के जीव में अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का वृत्तान्त ज्ञात कर पालक और दण्डक सहित समस्त नगरी को जलाकर भस्म कर डाला । नगर विनष्ट हो जाने से क्रमशः वह अरण्य में परिणत हो गया । दण्डक के नाम पर उस अरण्य का नाम दण्डकारण्य पड़ा |
( श्लोक ३६९ - ३७०)