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करने पर भी हमारे केवलज्ञान प्राप्ति में सहायक हुआ है ।'
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( श्लोक ३१४- ३१७)
उसी समय वहाँ बैठे हुए गरुड़पति महालोचन देव बोले, 'हे राम, तुमने यहाँ आकर अच्छा ही किया है । अब बताओ तुम्हारे उपकार का मैं क्या प्रतिदान दे सकता हूं ?' राम ने कहा, 'हमारे लिए कुछ भी नहीं करना है; किन्तु वह देव यह कहकर कि, 'मैं किसी समय तुम्हारा कोई उपकार करूंगा' अन्तर्धान हो ( श्लोक ३१८ - ३१९ )
गया ।
यह संवाद सुनकर वंशस्थल के राजा सुरप्रभ भी वहाँ आए । उन्होंने राम को नमस्कार कर उनकी पूजा की। राम के आदेश से उन्होंने उस पर्वत पर अर्हत् चैत्य का निर्माण करवाया। उसी दिन से उस पर्वत का नाम रामगिरि प्रसिद्ध हो गया । तदुपरान्त राम सुरप्रभ राजा से विदा लेकर निर्भीकतापूर्वक भयानक दण्डकारण्य में प्रविष्ट हुए और वहाँ एक वृहद् पर्वत की गुफा में घर पर जिस प्रकार स्वच्छन्दतापूर्वक रहा जाता है उसी प्रकार स्वच्छन्दतापूर्वक रहने लगे ! ( श्लोक ३२० - ३२३ ) एक दिन आहार के समय त्रिगुप्त और सुगुप्त नामक दो चारण मुनि वहाँ अवतरित हुए । वे दो मास के उपवासी थे और पारने के लिए वहाँ आए थे । राम, लक्ष्मण, सीता ने भक्तिभाव से उनकी वन्दना की, तदुपरान्त सीता ने यथायोग्य अन्न-जल देकर उनका पारणा करवाया । उसी समय देवों ने रत्न और सुगन्धित जल की वर्षा की और कम्बुग्रीव के विद्याधरपति रत्नजटि एवं दो देव वहाँ आए, उन्होंने प्रसन्न होकर अश्व सहित राम को एक रथ दिया । ( श्लोक ३२४-३२७) सुगन्धित जल की सुगन्ध से गन्ध नामक रुग्ण पक्षी जो कि वहीं रहता था एक वृक्ष से नीचे उतरा । मुनिद्वय को देखकर उसे जाति स्मरण ज्ञान हो गया । अतः वह मूच्छित होकर गिर पड़ा । सीता के जल छिड़कने पर कुछ समय पश्चात् उसकी चेतना लौटी तो वह दोनों मुनियों के चरणों में जा गिरा । मुनियों को स्पर्शो षध नामक लब्धि प्राप्त थी । इसीलिए उनके चरण स्पर्श से वह नीरोग हो गया । उसके डैने स्वर्णतुल्य हो गए, चोंच प्रवाल-सी, पैर पद्मराग मणि से और समस्त देह ने नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा धारण