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गौरव के गिरितुल्य भरत ने सारी बात सुनकर आगत विजयरथ का सत्कार किया। सत्पुरुष भक्तवत्सल होते ही हैं । विजयरथ ने अपनी छोटी बहिन विजयमाला को जो कि रतिमाला से छोटी थी, भरत को दी । उसी समय प्रव्रजन करते हुए अतिवीर्य मुनि अयोध्या पहुंचे। यह संवाद पाकर अनेक राजाओं के साथ भरत उनका स्वागत करने गए और वन्दना कर क्षमा-प्रार्थना की। सम्मानपूर्वक भरत द्वारा विदा दे देने के पश्चात् विजयरथ भी आनन्दमना बने अपने राज्य नन्दावर्तपुर को लौट गए। (श्लोक २२८-२३२)
महीधर राजा की आज्ञा लेकर राम भी विजयनगर का परित्याग करने को प्रस्तुत हुए। जाने को इच्छुक लक्ष्मण ने भी वनमाला से सम्मति चाही। अश्रु प्रवाहित करती हुई वनमाला बोली, 'प्रियतम, उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा क्यों की थी ? उस समय यदि मेरी मृत्यु हो जाती तो वह सुखद मृत्यु होती। कारण, तब मुझे आपका असह्य विरह सहन नहीं करना पड़ता। हे नाथ ! आप मुझसे विवाह कर अपने साथ ले चलिए, नहीं तो विरह के वेश में यमराज मुझे ले जाएगा। (श्लोक २३३-२३६)
लक्ष्मण बोले - 'हे मनस्विनी ! इस समय मैं अपने अग्रज की सेवा में निरत हैं। अतः तुम मेरे सेवा-कार्य में विघ्न मत बनो। हे वर-वणिनी ! मैं अपने अग्रज को उनके इच्छित स्थान पर पहुंचा कर तुम्हारे पास आऊँगा और तुम्हें ले जाऊँगा क्योंकि तुम्हारा निवास मेरे हृदय में है। हे मानिनी ! मैं यहाँ पुनः आऊँगा । इस बात की प्रतीति के लिए यदि तुम मुझसे कोई प्रतिज्ञा करवाना चाहो तो मैं वह भी करने को तैयार हूं।' उसकी इच्छा पर लक्ष्मण ने यह शपथ ली कि यदि वह पूनः यहाँ नहीं आए तो उन्हें रात्रि भोजन का पाप लगेगा।
(श्लोक २३७-२४०) रात्रि के शेष भाग में राम ने लक्ष्मण व सीता सहित उस स्थान का परित्याग कर दिया। क्रमशः कई वनों को पार करते हुए वे क्षेमाञ्जलि नामक नगर के निकट पहुंचे व नगर के बाहर के उद्यान में अवस्थित हुए। लक्ष्मण वन से फल-मूल आहरण कर लाए। सीता ने उसे परिष्कार कर राम को खाने के लिए दिया । राम ने वह खाया। तदुपरान्त लक्ष्मण राम की आज्ञा लेकर नगर को गए और वहाँ पर घोषणा सुनी कि 'जो व्यक्ति राजा की शक्ति