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उसी समय एक व्यक्ति बोल उठा, 'देव, महीधर स्वयं नहीं या सो तो ठीक है; किन्तु उसने आपको लज्जित करने के लिए जिस सैन्यदल को भेजा है वह स्त्री सेना है ।' यह सुनकर तो अतिवीर्य अत्यन्त कुपित हो उठा और द्वार पर उपस्थित राम और उसकी सेना के लिए आदेश दिया, ' क्रीतदासियों की तरह उन्हें गर्दन पकड़कर नगर से बाहर निकाल दो ।' (श्लोक २१४-२१६) यह सुनकर अतिवीर्य के महापराक्रमी सामन्तों ने उसकी आज्ञा का पालन करने के लिए स्त्री सेना में उपद्रव मचा दिया | यह देखकर लक्ष्मण आलान स्तम्भ को उखाड़ कर उसे ही अस्त्र के रूप प्रयोग कर सामन्तों को धराशायी करने लगे । सामन्तों को धराशायी होते देखकर अतिवीर्य और क्रुद्ध हो उठा और हाथ में खड्ग लेकर युद्ध के लिए जैसे ही आगे बढ़ा लक्ष्मण ने उसके हाथ से खड्ग छीन लिया और उसके केश पकड़ कर जमीन पर पटक दिया और उसी के वस्त्रों से उसे बांध दिया । तदुपरान्त हरिण को जैसे सिंह पकड़कर ले जाता है उसी प्रकार वे नरसिंह लक्ष्मण उसे पकड़कर ले गए । भयभीत नगर जन त्रस्त दृष्टि से यह दृश्य देखने लगे । दयावश सीता ने उसे छुड़वाया । लक्ष्मण ने उसे यह स्वीकार करवा के छोड़ दिया कि वह भरत की सेवा करेगा । ( श्लोक २१७-२२२) तब देवों ने उनका स्त्री रूप समाप्त कर दिया । अतः अतिवीर्य राम और लक्ष्मण को पहचान गए और उनकी खूब सेवा की । अब अभिमानी अतिवीर्य को अपने मान की बात स्मरण हो आई । मान को आघात लगने से उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया । मैं अन्य का सेवक बनूँगा ? इसी अहङ्कार के कारण उन्होंने दीक्षा लेना स्थिर कर उस समय अपने पुत्र विजयरथ को राज्य दे दिया । यह देख राम ने कहा, 'तुम तो मेरे द्वितीय भरत हो । सुखपूर्वक राज्य करो, दीक्षा मत लो।' फिर भी महामानी अतिवीर्य ने दीक्षा ग्रहण कर ली । उनके पुत्र विजयरथ ने अपनी बहिन रतिमाला लक्ष्मण को दी । लक्ष्मण ने उसे ग्रहण कर लिया ।
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( श्लोक २२३-२२७ ) तब राम अपनी सेना लेकर पुनः विजयपुर लौट गए । विजयरथ भी भरत की सेवा करने के लिए अयोध्या चले गए ।