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के अधिपति हैं । मैं और अन्यान्य राजागण आपके दास हैं । हे नाथ ! मेरे स्वामी सिंहोदर को छोड़ दें और इन्हें समझावें कि मेरे अन्य को नमस्कार न करने के अभिग्रह को सहन करें । अर्हत् और साधु के अतिरिक्त किसी को नमस्कार नहीं करूँगा- मैंने यह नियम प्रीतिवर्द्धन मुनि से लिया था ।
( श्लोक ६४-६९ )
यह बात स्वीकार
तो
राम के भृकुटि निर्देश मात्र से सिंहोदर ने कर ली । लक्ष्मण ने जब उसे मुक्त कर दिया उसने वज्रकरण को आलिङ्गन में लिया और अनुज की तरह राम की साक्षी में अपना आधा राज्य वज्रकरण को दे दिया । दशाङ्गपुर के राजा वज्रकरण ने अवन्ती के राजा सिंहोदर से श्रीधरा के कुण्डल माँगकर विद्युदंग को दिए । वज्रकरण ने अपनी आठ कन्याएँ और सामन्त सहित सिंहोदर ने उनकी तीन सौ कन्याएँ लक्ष्मण को दीं । तत्र लक्ष्मण ने उनसे कहा, 'अभी आप लोग अपनी कन्याओं को अपने पास ही रखिए क्योंकि इस समय पिताजी ने भरत को सिंहासन पर बैठाया है अत: जब मैं सिंहासन पर बैठूंगा उस समय आपकी कन्याओं का पाणिग्रहण करूँगा । अभी तो हम मलयाचल जाकर रहेंगे ।' वज्रकरण और सिंहोदर ने यह स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् राम ने सभी को विदा दी । विदा लेकर सभी अपनेअपने नगर को लौट गए ।
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( श्लोक ७०-७६) राम सीता और लक्ष्मण सहित उस रात वहीं रहे। दूसरे दिन सुबह यात्रा करते हु वे एक निर्जन प्रदेश में जा पहुंचे । सीता को बहुत प्यास लगी थी । अतः लक्ष्मण राम-सीता को एक वृक्ष नीचे बैठाकर राम की आज्ञा लेकर जल की खोज में निकले । चलते-चलते उन्होंने कमलाच्छादित प्रियमित्र-सा वल्लभ और आनन्ददायक एक सरोवर देखा । वहाँ कुबेरपुर का राजा कल्याणमाला क्रीड़ा करने आया हुआ था । वह लक्ष्मण को देखते ही अतिदुरात्मा कामदेव के बाण से बिद्ध हो गया । उसने लक्ष्मण को नमस्कार कर कहा, 'आज आप हमारे अतिथि बनें ।'
( श्लोक ७७-८१) उसकी देह में काम विकार और स्त्रियोचित लक्षण देखकर लक्ष्मण मन-ही-मन सोचने लगे - यह कोई स्त्री प्रतीत होती है । किसी कारणवश पुरुष वेश धारण कर रखा है । ऐसा सोचकर वे