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सेंध लगाकर राजा के महल में प्रवेश कर गया । उसी समय श्रीधरा और सिंहोदर में जो बातचीत हो रही थी उसे मैं सुन सका । श्रीधरा ने पूछा, 'हे नाथ, आज आपको नींद क्यों नहीं आ रही है ? आप इतने उद्विग्न क्यों हैं ?" सिंहोदर ने उत्तर दिया, 'देवी, जब तक मैं वज्रकरण की जो कि मुझे प्रणाम नहीं करता) हत्या नहीं करूंगा तब तक मुझे नींद कैसे आएगी ? कल सुबह ही मित्र, पुत्र बन्धु बान्धव सहित मैं वज्रकरण की हत्या करूँगा तभी मैं सो पाऊँगा उसके पूर्व नहीं ।' उसकी यह बात सुनकर स्वधर्मी प्रेम के कारण कुण्डल चोरी किए बिना ही मैं यह संवाद आपको देने के लिए भागता हुआ आया हूं ।
( श्लोक २४-२९ )
'यह संवाद सुनकर वज्रकरण ने अपने नगर को अन्न और तृण से पूर्ण कर लिया । तभी शत्रु सेना के पैरों से उड़ती हुई धूल आकाश में दिखाई पड़ी और चन्दन वृक्ष को जैसे साँप घेर लेता है उसी प्रकार अल्प समय में ही दशाङ्गपुर नगर को सिंहोदर ने घेर लिया । तदुपरान्त एक दूत के साथ कहला भेजा, 'ओ कपटी, अंगुली में अंगूठी धारण कर तूने बहुत दिनों तक मुझे प्रतारित किया । अतः अंगुली से अंगूठी उतार कर आओ और मुझे प्रणाम करो | ऐसा नहीं करने पर तुम सपरिवार शीघ्र ही यमराज के पास पहुंच जाओगे ।'
( श्लोक ३०-३३ )
'प्रत्युत्तर में वज्रकरण ने कहला भेजा, 'मैंने नियम लिया है कि मैं अर्हत् और साधु के अतिरिक्त किसी को नमस्कार नहीं करूँगा । इसलिए मैंने ऐसा किया है । मुझे पराक्रम का बिलकुल अभिमान नहीं है; किन्तु धर्म का अभिमान है । अतः नमस्कार के अतिरिक्त मेरा जो कुछ भी है आप यथारुचि ग्रहण करें और मुझे एक धर्म द्वार दें जिससे धर्म के लिए मैं अन्यत्र चला जाऊँ । धर्म ही मेरा धन है । (श्लोक ३४-३६) ' किन्तु सिंहोदर ने यह बात स्वीकार नहीं की । कारण अभिमानी पुरुष धर्म-अधर्म को कुछ नहीं समझते। तभी से सिंहोदर वज्रकरण सहित इस नगर को घेरे हुए हैं । उसी के भय से यह सारा प्रदेश जनहीन हो गया है । इस राजविग्रह को देखकर मैं भी सकुटुम्ब अन्यत्र चला गया हूं । आज ही वहां कई घर जला दिए गए हैं । उनके साथ ही मेरा घर भी जल गया है । मेरी