________________
116]
गुरु जैन मुनि के अतिरिक्त किसी को नमस्कार नहीं करेंगे ।
( श्लोक ४-११ ) मुनि का पुनः वन्दन कर वज्रकरण दशाङ्गपुर लौट गए । श्रावक धर्म का पालन करते हुए उन्होंने एक दिन सोचा, मैंने देव गुरु के अतिरिक्त किसी को भी नमस्कार न करने का नियम लिया है । उस नियम के लिए यदि मैं सिंहोदर को नमस्कार नहीं करूँगा तो वह मुझसे रुष्ट हो जाएगा । अतः इसके लिए कोई उपाय करना चाहिए । यह सोचकर उस बुद्धिमान् सामन्त ने अपनी अँगूठी में मुनिसुव्रत स्वामी की मणिमय मूर्ति स्थापित करवाई । तदुपरान्त उस अँगूठी में स्थित मुनि सुव्रत मूर्ति को नमस्कार करके सिंहोदर को प्रतारित करने लगे । अति बलवान व्यक्ति के सम्मुख माया ही कार्य करती है । वज्रकरण की इस छलनीति की बात किसी ने जाकर सिंहोदर से कह दी । दुष्ट हमेशा छुरी की तरह सबका अनिष्ट ही करता रहता है । ( श्लोक १२-१५ )
' यह सुनकर सिंहोदर वज्रकरण पर कुपित होकर सर्प की तरह फुफकारने लगा । यह बात मैंने जाकर बज्रकरण को कह दी । वज्रकरण बोला, 'वे मुझ पर कुपित हैं तुमने यह बात कैसे जानी ?' प्रत्युत्तर में मैंने कहा, 'कुन्दनपुर में समुद्रसङ्गम नामक एक श्रावक रहते हैं, मैं उनका पुत्र विद्युदङ्ग हूं । मेरी माँ का नाम यमुना है । यौवनावस्था प्राप्त होने पर मैं बहुत सारा द्रव्य लेकर क्रय-विक्रय के लिए उज्जयिनी नगरी में गया । वहाँ मृगनयनी कामलता नामक एक वेश्या को देखा । उसे देखते ही मैं काम के वशीभूत हो गया । एक ही रात इसके पास रहूंगा यह निश्चित कर मैं उसके पास गया और उससे समागम किया; किन्तु जाल में जैसे मृग आबद्ध हो जाता है उसी प्रकार मैंने उसके आसक्ति जाल में आबद्ध होकर पिताजी की जीवन भर महीने में नष्ट कर दी । ( श्लोक १६-३२ ) 'एक दिन कामलता मुझसे बोली, 'सिंहोदर राजा की पटरानी श्रीधरा के जैसे कुण्डल है वैसे कुण्डल मुझे लाकर दो ।' मैं सोचने लगा- अब जबकि मेरे पास विल्कुल अर्थ नहीं है तब वैसे कुण्डल मैं कैसे बनवा सकूँगा ? अतः उसके कुण्डलों को चोरी कर लाना ही अच्छा होगा । ऐसा सोचकर एक दिन मैं साहसपूर्वक
की कमाई छह