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भुजाओं में भरकर उच्च स्वर में रोने लगी। भरत ने आँखों में अश्र भरकर राम के चरणों में प्रणाम किया। खेद रूपी विष के सर्वाङ्ग में व्याप्त हो जाने के कारण वे तत्क्षण मूच्छित हो गए। राम के द्वारा उनकी चेतना के लौटने पर सुसंस्कारी भरत इस प्रकार बोले, 'हे भाई, अज्ञात व्यक्ति की तरह मुझे त्यागकर आप यहाँ क्यों चले आए ? माँ ने जो गलती की उस अपराध का कलङ्क मेरे मस्तक पर लगा हुआ है कि भरत राज्यलोभी है। वह कलङ्क आप मुझे अपने साथ वन ले जाकर दूर करें। ऐसा करने पर मेरा कुलीनतानाशक शल्य नष्ट हो जाएगा । आपके राजा होने पर सौमित्र आपके मन्त्री बनेंगे, मैं आपका द्वारपाल और शत्रुघ्न छत्रधारक होगा।'
। श्लोक ५१०-५१८) भरत के ऐसा कहने पर कैकेयी अश्रु विसर्जित करती हुई बोली- 'वत्स ! तुम्हारे भाई ने जैसा कहा है तुम वही करो। कारण, तुम भ्रातृवत्सल हो। इसमें न तुम्हारे पिता का दोष है, न भरत का। यह समस्त अपराध तो स्त्री स्वभाव सुलभ कैकेयी का है। कुलटा स्वभाव को छोड़कर स्त्रियों में जितने भी दोष होते हैं उन सब दोषों की खान मैं ही हं । पति को, पुत्र को, उनकी माताओं को दुःख पहुंचाने वाला कार्य मैंने किया है। उसके लिए पुत्र, मुझे क्षमा करो । कारण, तुम भी मेरे पुत्र हो।' (श्लोक ५१९-५२२)
___ तब राम अश्रु भरे नयनों से बोले-'माँ ! मैं राजा दशरथ का पुत्र होकर प्रतिज्ञा कैसे भंग करूँ ? पिता ने भरत को राज्य दिया उसमें मैंने अपनी सम्मति दे दी । अब जबकि हम दोनों जीवित हैं तो अन्यथा कैसे हो सकता है ? एतदर्थ हम दोनों की आज्ञा से भरत का राजा होना उचित है। पिताजी की तरह भरत के लिए मेरी आज्ञा भी अनुल्लघनीय है।'
(श्लोक ५२३-५२५) ऐसा कहकर सीता द्वारा लाए जल से समस्त सामन्तों के सम्मुख राम ने वहीं भरत का राज्याभिषेक किया। तदुपरान्त कैकेयी को प्रणाम और भरत को मधुर सम्भाषण से आश्वस्त कर राम ने दोनों को अयोध्या लौटा दिया और स्वयं दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए।
(श्लोक ५२६-५२७) अयोध्या आकर भरत ने पिता और ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा से अखण्ड राज्यभार ग्रहण किया। दशरथ ने भी बहुत से परिजनों