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इस प्रकार अपना पूर्वभव अवगत करने से राजा दशरथ के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अतः वे मुनि को वन्दना कर राज्यभार राम को देने के लिए प्रासाद में गए और अपनी पत्नियों पुत्रों, मन्त्रियों को बुलाकर मधुर-अक्षरा वाणी में सबसे दीक्षा लेने की अनुमति चाही।
(श्लोक ४१८-४१९) भरत उसी समय पिता को नमस्कार कर बोले, 'पिताजी, मैं आपके साथ सर्वविरति रूप धर्म ग्रहण करूंगा। आपके बिना मैं घर पर नहीं रहूंगा। यदि रहूंगा तो दो प्रकार से वह मेरे लिए कष्टकर होगा। एक आपका विरह, दूसरा सांसारिक संक्लेश ।'
(श्लोक ४२०-४२१) यह सुनकर कैकेयी डर गई। वह सोचने लगी, यदि ऐसा ही हुआ तो मेरे पति भी नहीं रहेंगे, पुत्र भी नहीं रहेगा। अतः वह बोली, 'स्वामिन्, आपको अवश्य ही याद होगा, स्वयम्वर के समय मैंने आपका सारथ्य किया था। उसी समय आपने मुझे एक वर देने को कहा था। अब वह वर दीजिए क्योंकि आप सत्यप्रतिज्ञ हैं महात्माओं की प्रतिज्ञा पत्थर पर खोदी रेखा की तरह होती है।'
(श्लोक ४२२-४२४) दशरथ बोले, 'मैंने जो वर देने को कहा था वह मुझे याद है । एतदर्थ मेरी दीक्षा निषेध के सिवाय जो कुछ मेरा है मांग लो।'
(श्लोक ४२५) तब कैकेयी बोली. 'हे नाथ यदि आप स्वयं दीक्षित हो रहे हैं तो पूरा राज्य भरत को दे दीजिए।' दशरथ ने उत्तर दिया, 'यह राज्य तुम अभी ले लो।' तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण को बुलाकर कहा, 'वत्स, एक बार कैकेयी ने मेरा सारथ्य किया था। उस समय मैंने उसे वर मांगने को कहा था। उसी वर में उसने आज भरत के लिए राज्य माँगा है।'
श्लोक ४२६-४२८) यह सुनकर राम आनन्दित होकर बोले, 'तात, मेरी माँ ने उस वर में मेरे पराक्रमी भाई भरत के लिए राज्य माँगा है यह उचित ही हुआ है। आप जो इस विषय में मेरा परामर्श चाह रहे हैं यह तो आपकी उदारता है; किन्तु मुझे इससे यह सोचकर दुःख हो रहा है कि लोग इससे मुझे अविनयी समझ सकते हैं। हे तात, आप सन्तुष्ट होकर यह राज्य चाहे जिसे खुशी से दे सकते हैं ।