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________________ 108] मैं तो आपकी आज्ञा को धारण करने वाला भृत्य मात्र हूं। मेरा निषेध करने का या सम्मति देने का कोई अधिकार ही नहीं है। जो भरत है वही मैं हूं। हम दोनों आपके लिए समान हैं, अतः आप सहर्ष भरत को राजपद पर अभिषिक्त करें। (श्लोक ४२९-४३२) राम की बात सुनकर दशरथ विस्मित और विशेष प्रीतिमय हो गए और तदनुरूप करने के लिए मन्त्रियों को आज्ञा दी; किन्तु भरत बीच में ही बोल उठे, 'तात आपके साथ दीक्षित होने की बात मैंने पहले ही आपको कह दी थी। अतः अन्य के कहने से अन्यथा करना किसी भी प्रकार उचित नहीं है।' (श्लोक ४३३-४३४) दशरथ बोले, 'वत्स, तुम मेरी प्रतिज्ञा को व्यर्थ मत करो। तुम्हारी माँ को तो मैंने बहुत पहले ही वरदान दे दिया था जो कि दीर्घकाल से धरोहर की भाँति मेरे पास रक्षित था। उस वर में वह आज तुम्हारे लिए राज्य चाह रही है। इसलिए पुत्र, तुम्हारी माँ और मेरी आज्ञा को अन्यथा करना तुम्हें उचित नहीं है।' (श्लोक ४३५-४३६) __ तब राम भरत से बोले, 'भाई, यद्यपि तुम्हारे मन में राज्य प्राप्ति की बिन्दु मात्र भी इच्छा नहीं है फिर भी पिताजी के कथन को सत्य करने के लिए तुम यह राज्य ग्रहण करो।' (श्लोक ४३७) राम की यह बात सुनकर भरत के नेत्रों में जल भर आया। वे राम के चरणों में गिर पड़े और करबद्ध होकर गद्गद् कण्ठ से बोले, 'हे पूज्य, पिताजी और आप जैसे महामना के लिए मुझे राज्य देना उचित है; किन्तु मुझ-से व्यक्ति को तो वह ग्रहण करना उचित नहीं है। क्या मैं राजा दशरथ का पुत्र नहीं हूं? या आप जैसे अग्रज का अनुज जिस पर मैं गर्व कर सकू ?' (श्लोक ४३८-४४०) - यह सुनकर राम दशरथ से बोले, 'पिताजी, मेरे यहाँ रहते भरत राज्य ग्रहण नहीं करेगा। एतदर्थ मैं वन में वास करने जा रहा हूं।' ऐसा कहकर पिता की आज्ञा ली और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम कर हाथ में धनुष और कन्धे पर तूणीर लिए वे वहाँ से निकल गए। (श्लोक ४४१-४४३) भरत उच्च स्वर से रोने लगे। राम को वन में जाते देख
SR No.090517
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size20 MB
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