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शीघ्र ही ससम्मान नारद को अपने आवास पर बुलवाया और एकान्त में उनसे पूछा कि उन्होंने जिस स्त्री का चित्र अङ्कित किया है वह किसकी कन्या है ?
(श्लोक ३०४-३०५) नारद ने उत्तर दिया, 'जिस स्त्री का चित्र अङ्कित कर मैंने उसे दिखाया था वह राजा जनक की पुत्री सीता है। सीता का रूप जैसा है वैसा तो मैं अङ्कित ही नहीं कर सका। वैसा अङ्कित करना तो अन्य के लिए भी सम्भव नहीं है। कारण, वह रूप लोकोत्तर है। सीता के जैसा रूप तो मानवियों में क्या देवियों में भी नहीं देखा जाता। यहाँ तक कि नाग-कन्याएँ और गन्धर्वकन्याओं में भी नहीं। उसके रूप की सृष्टि करने में तो देव भी असमर्थ हैं। उसका रूप तो दूर उस रूप की अनुकृति करने में देव या मनुष्य भी असमर्थ है। यहाँ तक कि स्वयं प्रजापति ब्रह्मा भी अनुरूप आकृति सर्जन करने में असमर्थ हैं। उसकी आकृति और वाणी में जो माधुर्य है, हाथ-पाँव, कण्ठ में जो लालिमा है, वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। उसके रूप को जिस प्रकार चित्रित करने में मैं असमर्थ हूं, उसी प्रकार उस रूप का वर्णन करने में भी असमर्थ हूं। फिर भी कहता हूं वह यथार्थतः भामण्डल के ही योग्य हैं। यह समझ कर ही मैंने भामण्डल को उसका चित्र यथासाध्य अङ्कित करके दिखाया था।'
(श्लोक ३०५-३१२) ____ नारद की बात सुनकर चन्द्रगति भामण्डल से बोले, 'वह तुम्हारी पत्नी होगी।' इस प्रकार भामण्डल को आश्वस्त कर उन्होंने नारद को विदा दी।
(श्लोक ३१३) तदुपरान्त चन्द्रगति ने चपलमति नामक एक विद्याधर को कहा, 'तुम शीघ्र जाकर जनक को अपहरण कर ले आओ।' चन्द्रगति के आदेशानुसार वह रात्रि के समय मिथिला गया और राजा जनक को उठाकर ले आया और उनके सम्मुख उपस्थित किया। रथनुपुर के अधिपति चन्द्रगति ने तब सस्नेह जनक का आलिङ्गन कर अपने पास बैठाकर कहा, 'तुम्हारी जो लोकोत्तर रूप सम्पन्ना सीता नामक कन्या है और मेरे रूप सम्पत्ति से परिपूर्ण भामण्डल नामक जो पुत्र है-मेरी इच्छा है दोनों वैवाहिक बंधन में बंध जाएँ ताकि योग्य के साथ योग्य का मिलन हो जाए और इस समय से हम दोनों भी मित्र हो जाएँ ।' (श्लोक ३१४-३१८)