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स्वयं को विजयी समझते रहते हैं ऐसी म्लेच्छ सेना के सैनिकों ने राम की सेना में उपद्रव मचाना शुरू कर दिया। प्रबल वायु जिस प्रकार धल उड़ाकर जगत् को अन्धा कर देती है उसी प्रकार उन म्लेच्छों ने राम के सैनिकों को स्व अस्त्रों से अन्धा कर दिया। उस समय शत्रु और उनकी सेना ने स्वयं को विजयी समझ लिया। राजा जनक स्वयं को मृत्यु के सन्निकट समझने लगे और लोग 'हाय मारे गए' ऐसा मानने लगे।
(श्लोक २७८-२८०) यह देखकर राम ने तत्काल धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया और रणनाट्य के वाद्य की तरह उससे टङ्कार की। तदुपरान्त मृत्यु लोक में अवतरित देव की भाँति भ्र भङ्ग किए बिना ही अल्प समय में उन्होंने कोटि-कोटि म्लेच्छों को शिकारी जिस प्रकार हरिणों को विद्ध करता है उसी प्रकार उन्हें विद्धकर डाला।
(श्लोक २८१-२८२) राजा जनक तो बेचारा गाय है, उसकी सेना मक्खी-मच्छर है, उसकी सहायता के लिए आने वाली सेना तो पहले से ही दीन हो गई है तब यह गरुड़ की भाँति आकाश को आच्छादित कर देने वाला तीर किसका है ? आतरङ्ग आदि राजा परस्पर इसी प्रकार बात करते हुए राम के आगे आए। राम को देखकर विस्मय और क्रोध से भरकर वे राम पर अस्त्र वर्षा करने लगे। अष्टापद जिस प्रकार सिंह को समाप्त कर देता है उसी प्रकार राम ने दुरापाती (दूर से आकर गिरने वाले,) दृढ़ाघाती और शीघ्रभेदी तीरों से लीला मात्र में म्लेच्छों को विनष्ट कर डाला। म्लेच्छगण कौओं की तरह इधर-उधर जिधर जो जा सका भाग छूटे । जनक और पुरवासियों ने स्वस्ति की श्वांस ली। (श्लोक २८३-२८७)
राम का पराक्रम देखकर जनक ने अपनी कन्या सीता का विवाह राम से करना स्थिर किया। अतः राम के आने से जनक को दो प्रकार के लाभ हुए। एक कन्या के योग्य वर की प्राप्ति, दूसरा म्लेच्छों के उपद्रव का निवारण ।
(श्लोक २८८) सीता के रूप की चर्चा सुनकर नारद कौतूहलवश उसे देखने के लिए मिथिला नगरी पाए और सीधे कन्यागृह में प्रवेश किया। पीतचक्षु, पीतकेश, वृहद् उदर, हाथों में दण्ड और छत्र लिए, कौपीनधारी, कृश शरीर और दीर्घ शिखा युक्त नारद के भयङ्कर