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किन्तु स्व-आत्मा से हार्दिक मित्र तो केवल आप ही हैं। राजा जनक के सुख-दुःख को ग्रहण करने की शक्ति तो केवल आपमें ही है। अतः उनके दुःख सुख में आप ही उनकी सहायता कर सकते हैं। इस समय वे अत्यन्त विपन्न हैं। एतदर्थ अपने कुलदेव-से आपको याद किया है। वैताढय गिरि के दक्षिण में और चूल हिमवंत के उत्तर में अनेक जनपद हैं जहाँ भयङ्कर प्रकृति के मनुष्य निवास करते हैं। वहाँ बर्बर कुल की भाँति अर्द्ध-बर्बर देश है जो कि क्रूर आचार युक्त मानवों के कारण अत्यन्त भयङ्कर है। उसी देश के अलङ्कार रूप मयूरमाल नगर में आतरङ्गतम नामक अति प्रबल म्लेच्छ राजा राज्य करता है। उसके हजार-हजार पुत्र हैं जो स्वयं राजा बनकर शुक, मङ्कन, कम्बोज आदि देशों का भोग कर रहे हैं। इस समय उसी आतरङ्गतम ने अक्षौहिणी सेना से परिवृत होकर जनक राजा का राज्य भङ्ग कर दिया है। उन दुराचारियों ने वहाँ के चैत्यादि नष्ट कर दिए हैं। समस्त जीवन भोग कर सकें इतनी सम्पत्ति के अधिकारी होने पर भी वे आकर धर्म में विघ्न डालते हैं जिससे लगता है वे धन नहीं चाहते, धर्म नष्ट करना ही उन्हें अभीष्ट है। हे राजन्, अपने अत्यन्त प्रिय धर्म और राजा जनक की रक्षा कीजिए।' (श्लोक २६३-२७१)
दूत की बात सुनकर दशरथ ने उसी क्षण युद्ध-यात्रा के लिए रणवाद्य बजवाए। सत्पुरुष, सत्पुरुष की रक्षा में कभी विलम्ब नहीं करते। तभी राम आकर बोले, 'पिताजी, म्लेच्छों का उच्छेद करने के लिए यदि आप स्वयं जाएँगे तो राम तथा उसका अनुज यहाँ बैठकर क्या करेगा ? पुत्र-स्नेह के कारण आप हमें असमर्थ समझ रहे हैं; किन्तु इक्ष्वाकु वंश के पुरुष तो जन्म से ही पराक्रमी होते हैं। एतदर्थ पिताजी आप प्रसन्नतापूर्वक यहीं रहें और म्लेच्छों के उच्छेद की आज्ञा हम लोगों को दें। कुछ ही दिनों में आप अपने पुत्रों की जयवार्ता सुनेंगे।
(श्लोक २७२-२७५) ऐसा कहकर बड़ी मुश्किल से राजा दशरथ की आज्ञा लेकर राम अनुज सहित बड़ी सेना लेकर मिथिला गए। वहां उन्होंने म्लेच्छों को इस प्रकार घूमते देखा जैसे महारण्य में चमरू, हस्ती, सिंह आदि घूमते रहते हैं।
(श्लोक २७६.२७७) जिनकी भुजाएँ युद्ध करने के लिए खुजलाती रहती है, जो .