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उधर मिथिला में पुत्र का अपहरण हो गया यह जानकर रानी विदेहा ने करुण स्वर से क्रन्दन कर आत्मीय परिजनों को शोकसागर में निमज्जित कर दिया। राजा जनक ने उसके अनुसन्धान के लिए चारों ओर आदमी भेजे; किन्तु बहुत दिन बीत जाने के पश्चात् भी बालक का कोई पता कहीं से भी नहीं मिला।
(श्लोक २५०-२५१) राजा जनक ने उस कन्या को अनेक गुणरूपी धान्य उत्पन्न हुआ है समझ कर उसका नाम रखा सीता। क्रमशः उनका पुत्रशोक कम हो गया । कारण संसार में मनुष्य का हर्ष और शोक तो आता-जाता ही रहता है।
(श्लोक २५२-२५३) कूमारी सीता रूप और लावण्य के साथ-साथ क्रमशः बुद्धिमान भी होने लगी। धीरे-धीरे वह चन्द्रलेखा की तरह कलापूर्ण हो उठी। यौवन प्राप्त होने पर उस कमलाक्षी ने उत्तम लावण्यमय लहरों से युक्त सरिता का रूप धारण कर लिया। सती लक्ष्मी-सा उसका वह अपरूप रूप देखकर राजा जनक दिन-रात यही सोचने लगे कि इसके योग्य पति कौन होगा? मन्त्रियों से परामर्श कर उन्होंने अनेक राजकुमारों को देखा; किन्तु कोई भी सीता के योग्य पतिरूप में उन्हें नहीं जंचा।
(श्लोक २५४-२५७) उसी समय अर्द्धबर्बर देश के आतरंगतम आदि दैत्य की तरह म्लेच्छ राजाओं ने जनक के राज्य में आकर उपद्रव शुरू कर दिया। कल्पान्त काल के जल प्रवाह की तरह उनकी गति उनसे नहीं रोकी जाएगी। समझकर जनक ने राजा दशरथ के पास सहायता के लिए दूत भेजा।
(श्लोक २५८-२५९) उदार-हृदय दशरथ ने आगत दूत को सम्मानित कर अपने पास बैठाया और बोले, 'चन्द्र से समुद्र जिस प्रकार दूर होता है उसी प्रकार दूर रहने पर भी मेरे मित्र ने जब तुम्हें मेरे पास भेजा है तो इससे तो हमारे मध्य का प्रगाढ़ बन्धुत्व ही सूचित होता है । आशा करता हूं मिथिलापति के राज्य में, नगर में, कुल में, सैन्यवाहिनी में सर्वत्र कुशल मङ्गल ही होगा ? वे भी अवश्य स्वस्थ होंगे? अभी तुम्हारे आने का क्या कारण है ?'
(श्लोक २६०-२६२) दूत बोला, 'हे महाबाहु, मेरे प्रभु के अनेक आत्मीय है;