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नाम वेगवती रखा गया । उस जीवन में भी दीक्षा लेकर वह मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुई । वहाँ से च्युत होकर वह रानी विदेहा के गर्भ में कुण्डलमण्डित के जीव के साथ कुन्या रूप में अवतरित हुई । ( श्लोक २३६-२३७) समय होने पर विदेहा ने एक पुत्र एक कन्या के रूप में युगल सन्तान को जन्म दिया । ठीक उसी समय पिंगल मुनि मृत्यु प्राप्त कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुए । अवधि ज्ञान से अपना पूर्वभव जानकर उस जन्म के बैरी कुण्डलमण्डित को राजा जनक के यहाँ पुत्र रूप में जन्म ग्रहण करते देखा । पूर्वभव के होकर उसने उसका अपहरण कर लिया ।
बैर के कारण रुष्ट ( श्लोक २३८ - २४० )
अपहरण कर ले जाते समय उसने सोचा इसे पत्थर पर पटक कर मार डालू ; किन्तु फिर सोचा पहले ही मैंने नीच कर्म, किए हैं। जिनको कई जन्मों तक भोगना पड़ा है । बाद में दैवयोग से मुनि बना और इस उच्च स्थिति को प्राप्त किया। अब इस शिशु की हत्या कर अनेक भव- भ्रमण का कारण क्यों बनूँ ?
( श्लोक २४१ - २४२) यह सोचकर कुण्डलादि अलङ्कारों से बालक को भूषित कर आकाश से स्खलित नक्षत्र की भ्रान्ति उत्पन्न कर रथनुपुर में उतरा और बालक को विछावन में जैसे सुलाया जाता है उसी प्रकार नन्दनोद्यान में धीरे से सुला दिया । आकाश से स्खलित नक्षत्र द्युति को चन्द्रगति ने देखा । 'यह क्या हुआ' जानने के लिए वह द्युति का अनुसरण करते हुए नन्दन उद्यान में आया और दिव्य अलङ्कार भूषित एक बालक को देखा । पुत्रहीन वह विद्याधर पति तुरन्त उसे पुत्र रूप में ग्रहण कर राज उसे अपनी पत्नी पुष्पवती को दे दिया जाकर बोला, 'आज देवी पुष्पवती ने एक पुत्र
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प्रासाद में ले गया और तदुपरान्त राजसभा में रत्न को जन्म दिया है ।
( श्लोक २४३ - २४७)
राजा और पुरवासियों ने उसका जन्मोत्सव मनाया। भामण्डल अर्थात् कान्तिपुंज के रूप में उसको उतरते देखा था अतः उसका नाम रखा भामण्डल । पुष्पवती और चन्द्रगति के नेत्ररूपी कुमुदों के लिए चन्द्ररूप वह बालक खेचरियों द्वारा लालित होकर अहर्निश बड़ा होने लगा । ( श्लोक २४२ - २४९ )