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के साथ विवाह किया ।
( श्लोक २०८ - २०९) कयान नामक एक ब्राह्मण सरसा को देखकर उस पर मुग्ध हो गया । उसने एक दिन अवसर पाकर उसका हरण कर लिया । कामातुर क्या नहीं करता ? ( श्लोक २१० ) अतिभूति सरसा को खोजने के लिए भूत की भाँति सर्वत्र घूमने लगा । पुत्र और पुत्र-वधू की खोज में उसके पीछे-पीछे अनुकोशा और वसुभूति भी घूमने लगे । वे बहुत जगह गए; किन्तु कहीं भी पुत्र और पुत्र वधू का सन्धान नहीं मिला । आगे बढ़ने पर उन्हें एक मुनि मिल गए । उन्होंने मुनि की भक्ति भाव से वन्दना की । उनकी देशना सुनकर दोनों के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया । अतः दोनों ने मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली । गुरु की आज्ञा से अनुकोशा कमलश्री नामक आर्यिका के पास रहने लगी । कालक्रम से वे दोनों मृत्यु प्राप्त कर सौधर्म देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए । व्रत यदि एक दिन भी पालन किया जाए तो स्वर्ग में ही जन्म होगा अन्यत्र नहीं । ( श्लोक २११-२१४) वसुभूति वहां से च्युत होकर वैताढ्य पर्वत के रथनुपुर नगर में चन्द्रगति राजा के रूप में उत्पन्न हुआ । अनुकोशा का जीव भी वहां से च्यव कर विद्याधरपति चन्द्रगति की पुष्पवती नामक अनिन्द्य चरिता पत्नी रूप में उत्पन्न हुआ । सरसा ने एक साध्वी के सम्पर्क में ली और मृत्यु के पश्चात् ईशान देवलोक हुई ।
( श्लोक २१५ - २१६ )
आकर दीक्षा ग्रहण कर देवी रूप में उत्पन्न
में
( श्लोक २१७ )
सरसा के विरह में पीड़ित अतिभूति मृत्यु के पश्चात् संसार भ्रमण करते हुए एक बार हंस- शिशु के रूप में जन्मा । उसी समय एक बाज पक्षी ने उसे अपने पंजों में पकड़ लिया; किन्तु वह पंजों से स्खलित होकर आकाश से एक मुनि के सामने आ गिरा। उसके प्राणों को समाप्त होते देखकर मुनि ने नमस्कार मन्त्र सुनाया । उस मन्त्र के प्रभाव से वह मृत्यु के पश्चात् किन्नर जाति की व्यंतर योनि में दस हजार वर्ष का आयुष्य लेकर देव रूप में उत्पन्न हुआ । वहां से च्युत होकर उसने विद्या नामक नगर में प्रकाश सिंह राजा की रानी प्रवरावली के गर्भ से जन्म लिया और कुण्डलमण्डित नाम से प्रसिद्ध हुआ । ( श्लोक २१८-२२१)