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प्रकार उसकी रक्षा कर रहे हैं उसी प्रकार मेरी भी रक्षा करिए । भूख के मारे मेरी श्वास रुक रही है । अच्छा और बुरे का व्यवहार तो जीव तब करता है जब वह स्वच्छन्द रहता है । धर्म-प्राण व्यक्ति भी क्षुधा से पीड़ित होकर क्या-क्या अन्याय नहीं कर बैठता ? अतः हे राजन् ! अभी नीति की बात छोड़िए । यह मेरा आहार है । उसे मुझे लौटा दें । यह कैसी नीति है कि एक की रक्षा के लिए दूसरे की हत्या करें ? राजन्, मैं और किसी भी भोजन से तृप्त नहीं हो सकता । मेरे द्वारा निहत भय त्रस्त जीवों के मांस खाने का ही मैं अभ्यस्त हूं ।' (श्लोक २६८-२७३) मेघरथ बोले- 'मैं इस कबूतर के वजन के बराबर मांस अपनी देह से काटकर तुम्हें दूँगा । उसे खाकर तुम अपनी क्षुधा शान्त करो ।' ( श्लोक २७४ ) 'तब ऐसा ही हो', कहकर बाज ने यह बात स्वीकार कर ली । राजा ने तुलादण्ड पर एक ओर उस कबूतर को रखा और दूसरी ओर अपनी देह से मांस काटकर पलड़े में रखने लगे; किन्तु राजा जितना मांस काट-काटकर पलड़े में रखते जाते वह कबूतर भी उसी प्रकार भारी होता चला जाता । राजा ने जब देखा यह कबूतर अपना वजन बढ़ाता जा रहा है तो वे स्वयं तराजू पर चढ़ गए ।' राजा को तुलादण्ड पर चढ़ते देख उनके अनुचर हाय-हाय करने लगे मानो सन्देह की तुलादण्ड पर वे चढ़ गए हों । सामन्त एवं मन्त्रीगण उनसे बोले - 'देव, आप यह क्या अनर्थ कर रहे हैं । आप अपनी इस देह से समस्त पृथ्वी की रक्षा करते हैं । एक पक्षी के लिए आप अपनी देह कैसे दे सकते हैं ? फिर यह पक्षी छद्मवेषी कोई देव या दानव लगता है । कारण, सामान्य कबूतर का इतना वजन कैसे हो सकता है ? ( श्लोक २७५ - २८१) जब वे ऐसा कह रहे थे तभी किरीट, कुण्डल और माला धारण किए मानो समृद्धि ही मूर्तिमन्त हो गई हो ऐसा देव उपस्थित हुआ । उसने राजा को सम्बोधन कर कहा - 'महाराज, आप मनुष्यों के अनन्य हैं । ग्रह जैसे स्व-स्थान से च्युत नहीं होते उसी प्रकार आप भी मानवता से च्युत नहीं हो सकते । देव-सभा में इन्द्र ने जब आपकी प्रशंसा की तो वह मुझे अविश्वसनीय लगी । अतः मैं आपकी परीक्षा लेने आया । पूर्व जन्म के विरोध के कारण