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जगत्पूज्य, आप तब तक यहाँ अवस्थान करें जब तक मैं राज्यभार पुत्र को देकर आपके चरण-कमलों में दीक्षा लेने के लिए नहीं लौटू ।' ( श्लोक १३८ - १४२ ) 'शुभ कार्य में विलम्ब मत करो' यह जिनादेश प्राप्त कर अभय घोष प्रासाद में लौटे और पुत्र विजय एवं वैजयन्त को बुलाकर बोले – 'विजय, तुम ज्येष्ठ पुत्र के रूप में इस राज्यभार को ग्रहण करो और वैजयन्त तुम युवराज बनो । मैं तीर्थंकर भगवान से दीक्षा ग्रहण करूंगा ताकि मुझे इस संसार-चक्र में पुनः आवर्तित नहीं होना पड़े ।' यह सुनकर वे बोले – 'आप जैसे संसार से भयभीत हैं हम भी उसी प्रकार संसार भय से भीत हैं । हम आपके ही पुत्र हैं । अतः हम भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करेंगे । दीक्षा ग्रहण के दो परिणाम होंगे - आपकी सेवा और संसार से मुक्ति ।' ( श्लोक १४३ - १४७ )
'तब ऐसा ही हो' कहकर उन महामना ने अपना वृहद् राज्य अन्य योग्य व्यक्ति को प्रदान कर दोनों पुत्रों सहित तीर्थंकर अनन्त से चतुविध संघ के सम्मुख दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् उन तीनों ने घोर तपस्या की । राजा ने बीस स्थानक की उपासना द्वारा तीर्थंकर गोत्र कर्म का उपार्जन किया। तीनों ही मृत्यु के उपरान्त अच्युत देवलोक में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयुष्य लेकर उत्पन्न हुए । ( श्लोक १४८ - १५१ ) 'इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह के अलङ्कार स्वरूप पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिनी नामक एक नगरी हैं । वहाँ के राजा का नाम हेमांगद और रानी का वज्रमालिनी था । अभयघोष का जीव च्युत होकर उसके गर्भ में आया । जातक तीर्थंकर होगा यह चौदह स्वप्नों से सूचित हुआ । समय पूर्ण होने पर वज्रमालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया । इन्द्रों ने उनका स्नानाभिषेक सम्पादित किया । वे अभी घनरथ रूप में पृथ्वी पर शासन कर रहे हैं। दोनों राजकुमार विजय और वैजयन्त अच्युत देवलोक से च्युत होकर सूर्य तिलक और चन्द्रतिलक नामक विद्याधर बने । वे दोनों विद्याधर अपना पूर्व जन्म ज्ञात हो जाने से अपने पूर्व जन्म के पिता आपको देखने के लिए यहाँ आए हैं । वे ही कौतुक वश इन दोनों मुर्गों के मध्य प्रवेश कर इनको परस्पर लड़ने को उत्तेजित कर रहे हैं ।