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६२] से लोगों ने मुनिधर्म ग्रहण कर लिया। फिर वज्रायुध आदि स्व-स्व स्थान को लौट गए।
(श्लोक ७५-७९) ठीक उसी समय अस्त्रशाला के अध्यक्ष ने आकर सानन्द वज्रायुध से कहा-'अस्त्रागार में चक्र उत्पन्न हुआ है।' तब वज्रायुध ने महा धूम-धाम से चक्र और अन्य तेरह रत्नों की पूजा की। चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए उन्होंने वैताढय पर्वत और छः खण्ड मङ्गलावती पर विजय प्राप्त की। कुमार सहस्रायूध को युवराज पद पर अभिषिक्त कर पृथ्वी के द्वितीय रक्षक के रूप में उन्हें नियुक्त किया।
(श्लोक ८०-८३) एक दिन वज्रायुध जब सामानिक देवों सहित इन्द्र की तरह राजन्य, सामन्त, मन्त्री और सेनापति से परिवृत हुए स्व-राज्यसभा में बैठे थे उसी समय एक तरुण विद्याधर आकाश से उतरा और हस्ती द्वारा आहत वृक्ष की तरह काँपते-काँपते मैनाक जैसे समूद्र की शरण ग्रहण करता है उसी प्रकार विपन्नों के आश्रय-स्थल महाराज वज्रायुध के निकट गया। ठीक दूसरे ही क्षण एक सर्वसुलक्षणा रूपवती विद्याधर कन्या मानो वह मूतिमती विद्या देवी हो हाथ से ढाल-तलवार लिए उपस्थित हुई । वह चक्रवर्ती के समीप जाकर बोली, 'महाराज, इस दुर्वृत्त को अपनी शरण से मुक्त करें ताकि मैं इसे इसके दुष्कर्म का दण्ड दे सक।' (श्लोक ८४-८८) ठीक इसके बाद में यम के दूत-सा रक्तचक्षु एक क्रुद्ध विद्याधर हाथ में मुदगर लिए प्रकट हुआ और वज्रायुध से बोला-'उसके दुष्कृत्य का विवरण सुनिए जिसके लिए उसकी हत्या करने मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूं। इस जम्बूद्वीप में विदेह क्षेत्र के अलङ्कार स्वरूप सुकच्छ नामक एक विजय है। उस विजय में वैताढय पर्वत के अप्रभाग में नगर-श्रेणियों में चूड़ामणि और स्वर्ग-ऐश्वर्य के शुल्क रूप शुल्कपुर नामक एक नगर है । उस नगर में उभय कुल की कीर्ति की रक्षा करते हुए विद्याधर राज शुल्कदत्त और उनकी रानी यशोधरा रहती थी। मैं उनका पुत्र पवनवेग हूं। नानाविध विद्या अर्जन कर अब मैं तरुण हुआ हूं।
(श्लोक ८९-९४) _ 'उसी वैताढय पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलङ्कार रूप किन्नरगीत नामक नगर में दीप्तचूल नामक एक विद्याधरराज रहते हैं उनकी पत्नी ने चन्द्रकीति सुकान्ता नामक एक सर्वसुलक्षणयुक्त