________________
[२१
शरदकालीन बादल की गड़गड़ाहट की तरह उभय पक्ष के नगाड़े बज उठे। उभय पक्ष के सैनिकों ने घमासान युद्ध प्रारम्भ किया। काटे छत्र के पतन से आकाश शत चन्द्रमय हो गया, काटे मुण्डों में शत राहुमय । उज्ज्वल शरों के पतन से लगा मानो आकाश से उल्काएँ बरस रही हैं। मदमत्त दोनों हाथियों को परस्पर सन्नद्ध होते देख लगा मानों दो पर्वत परस्पर मिल रहे हैं। धूल के साथ रक्त मिश्रित हो जाने से लगा मानो रक्तवर्ण सान्ध्य मेघ पृथ्वी पर अवतरित हो गया है। मदिरा पान-से रक्त पान कर उन्मत्त हुए भूत-पिशाच वहाँ विचरण करने लगे मानो मन्त्रोच्चार सहित सेनाओं के निक्षिप्त अस्त्रों से आहूत होकर वे वहां आए हैं । तीरों के द्वारा उत्क्षीप्त गज-मुक्ता से आकाश तारकामय हो गया और सैनिकों के पदचाप से उत्क्षिप्त धूल से रात्रि का अवतरण हो गया।
(श्लोक ३२५-३३०) भीषण दण्डों के आघात से जो हतज्ञान हो गए उनके मित्र और बन्धुगण अपने वस्त्र प्रान्तों से हवा करने लगे । जो पिपासात थे उनकी अनुगामिनी पत्नियाँ उन्हें बार बार कुम्भ से जल देने लगीं। उनकी पत्नियों के सन्मुख ही व्यंतर देवियाँ यह मेरा पति होगा, यह मेरा पति होगा, कहती हुईं युद्धनिरत सैनिकों को चुनने लगीं। एक दीर्घबाहु एक शत्रु का मुण्ड लेकर नृत्य कर रहा था। देखकर लगा उसे नत्य करते देख उसका धड़ भी उसके साथ नृत्य करने लगा। बन्दर जैसे एक वृक्ष से कूदकर दूसरे वृक्ष पर जाता है उसी प्रकार रथ भग्न हो जाने से सैनिक एक रथ से दूसरे रथ पर जाने लगे।
(श्लोक ३३१-३३५) एक शक्तिशाली सैनिक जो कि बहुत देर से युद्ध कर रहा था एवं जिसके हाथ से अस्त्र गिर गया था उसने अपने शिरस्त्राण से शत्रु सैन्य के मस्तक पर आघात किया और इस भाँति उसे मार डाला । इस प्रकार एक मास से कुछ कम समय तक उभय पक्ष के सैन्य अस्त्र-शस्त्रों से विद्या बल से युद्ध करते रहे । अन्ततः श्रीविजय के सैनिकों से अशनिघोष के पुत्र हवा से जैसे वृक्ष भग्न हो जाता है उसी प्रकार भग्न मनोरथ हो गए अर्थात् पराजित हो गए।
(श्लोक ३३६-३३९) तब अशनिघोष जो कि बाहुबल और विद्याबल में बलवान