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विजयभद्र, जो कि बलभद्र की तरह बलवान हैं, हे सन्निकटवर्ती त्रिपृष्ठ के कुल देवता, इस दुष्ट विद्याधर के हाथ से बाघ के मुख फँसी हरिणी-सी सुतारा की रक्षा कीजिए । वह दुष्ट हमारे प्रभु की बहिन को हरण कर लिए जा रहा है, देखकर शब्दभेदी वाण जैसे शब्द का अनुसरण करता है उसी भाँति हमने उस विलाप ध्वनि का अनुसरण किया । शीघ्र ही हमने हस्तीधृत कमलिनी की भाँति अशनिघोषधृत देवी सुतारा को देखा । तब हम क्रुद्ध स्वर में बोले
- 'अरे दुष्ट विद्याधर अशनिघोष, अछूत के देवमूर्ति को चुरा कर ले जाने की तरह देवी सुतारा को चुरा कर कहाँ ले जा रहा है ? तेरी मृत्यु सन्निकट है । हम तेरा वध करेंगे । अस्त्र धारण कर | हम विद्याधरराज अमिततेज के सैनिक हैं ।' इस भाँति उसे अपमानित कर उसे मारने के लिए गोक्षुर सर्प जिस प्रकार तीतर पक्षी को मारने दौड़ता है वैसे खड्ग धारण कर हम उसे मारने दौड़े । तब देवी सुतारा ने हमसे कहा, 'तुमलोग युद्ध बन्द करो । शीघ्र ज्योतिर्वन उद्यान में जाओ । वहाँ हमारे स्वामी श्रीविजय हैं। वे प्रतारिणी विद्या की छलना से अपने प्राण विसर्जन को उद्यत हो गए हैं। उन्हें रोको । उनके जीवित रहने पर ही मेरा जीवन है । उनके आदेश से हम शीघ्रतापूर्वक यहाँ आए और मन्त्रपूत जल से चिताग्नि निर्वापित की । सुतारा का रूप धारण करने वाली प्रतारिणी विद्या मन्त्रपूत जल छिड़कते ही भूत भागने की तरह अट्टहास कर भाग गई ।' ( श्लोक २७० - २८५) सुतारा अपहृत हुई है, सुनकर राजा खिन्न हो गए । अब चिताग्नि से अधिक वियोग की अग्नि उन्हें दग्ध करने लगी । तब सैनिक उनसे बोले, 'प्रभु, दुख मत करिए । शत्रु चतुर नहीं है । भाग्य की तरह वह आपसे दूर नहीं गया है । और जाएगा भी कहाँ ?' तत्पश्चात् सैनिकों ने नतजानु होकर राजा को प्रणाम कर उन्हें उनके साथ चलने के कहा और उन्हें लिए वे वैताढ्य पर्वत पर पहुंचे । अमिततेज विजय के प्रतिरूप श्रीविजय को आते देखकर ससैन्य उठे और उनकी सम्वर्द्धना की । आदर सहित उन्हें महार्घ आसन पर बैठाकर साग्रह उनके वहाँ आने का कारण पूछा । तब विद्याधर सैनिकों ने श्रीविजय के आदेश से सुतारा हरण का सारा वृत्तान्त शुरू से अब तक का निवेदन किया । ( श्लोक २८६ - २९१ )