________________
१६]
उस समय कपिल का जीव अशनिघोष विप्रतारनिका विद्या हस्तगत कर आकाश पथ से लौट रहा था। राह में उसने ज्योतिर्वन उद्यान में अपने पूर्व जन्म की पत्नी को स्व-स्वामी के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा । यद्यपि पूर्व जन्म का सम्बन्ध उसे स्मरण नहीं था फिर भी सुतारा को देखकर मानो वह उसकी पत्नी हो ऐसा आकर्षण अनुभव किया। विद्या प्रभाव से उसने एक स्वर्णमृग की सृष्टि की। वह मनोहारी मृग कन्दुक की भाँति इधर-उधर उछलने लगा। जब रानी सुतारा ने उस मृग को देखा-जिसके खुर और सींग नीलकान्त मणियों द्वारा निर्मित थे, जिसके नेत्र नील कमल-से थे, देह पीले रङ्ग की होने के कारण सुवर्ण छटा बिखर रही थी, कभी वह भूमि स्पर्श करता, कभी आकाश में उछलता। उसके रूप पर मुग्ध होकर रानी ने स्व-पति से कहा, 'उस मृग को पकड़ लीजिए, वह मेरी क्रीड़ा का साथी रहेगा।' यह सुनकर राजा उसे पकड़ने के लिए पीछे दौड़े। वह पार्वत्य नदी की भाँति कभी अपनी देह को संकुचित करता तो कभी विस्तृत किन्तु;. बिना कहीं रुके राजा को बहुत दूर ले गया। कभी वह दिखाई पड़ता, कभी नहीं पड़ता। कभी वह जमीन पर होता तो कभी आकाश में, इस भाँति अछूते देवों की तरह उसे पकड़ा नहीं गया। (श्लोक २४०-२५०)
__ श्रीविजय जब बहुत दूर चला गया तब अशनिघोष जहाँ सुतारा थी वहाँ आया और उसने वनदेवी की भाँति एकाकिनी सुतारा को अपने विमान पर चढ़ा लिया। फिर प्रतारिणी विद्या द्वारा सुतारा की प्रतिमूर्ति निर्मित कर वहाँ रख दी जो उसकी आज्ञा पर मानो वह सर्प द्वारा काटी गई है इस प्रकार चीत्कार उठी। श्रीविजय ने जब वह चीत्कार सुनी तो वह मृग का पीछा छोड़कर लौट आया। जो कुछ प्राप्त है उसे सुरक्षित ज्ञात करके ही विचक्षण नवीन को पाने का प्रयास करता है। जब उसने सुतारा को निष्प्राण धरती पर पड़े पाया तब वह मादुली मन्त्र और औषधि द्वारा उसे जीवित करने का प्रयास करने लगा। जो औषधि पहले काम कर सकती थी अब तो वह घृण्य लोक के लाभ की भाँति व्यर्थ हो गई । सुतारा के कमलतुल्य नयन बन्द हो गए, मुख का रङ्ग पीला पड़ गया, जांघे कांपने लगी, वक्ष स्पन्दित होने लगा, शरीर की अस्थियाँ, अस्थिबंध और सन्धिस्थल शिथिल हो गए और उसने अन्तिम श्वांस का