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सामान्य से कीट की मृत्यु भी कष्टप्रद है । एक व्यक्ति मेरे लिए विनष्ट हो जाए और मैं बच जाऊँ ? मानव रूप में मेरा प्रथम कर्त्तव्य है अन्य के जीवन की रक्षा करना । अपनी जीवन रक्षा के लिए मैं अन्य का वध नहीं करवा सकता ।' ( श्लोक २२४-२२६)
'तब मन्त्रीगण बोले, 'महाराज हमारे दो उद्देश्य हैं - आपकी विपदा का निवारण करना और जीवहत्या भी नहीं करना । इसलिए हम कहते हैं कि राजा के रूप में वैश्रवण की मूर्ति स्थापित कर दी जाए । समस्त प्रजा आपकी ही तरह सात दिनों तक उसकी सेवा करेगी। यदि उसकी शक्ति रहे, कोई दुर्घटना नहीं घटी तो भी अच्छा, और यदि घटी तो उससे जीवघात नहीं होगा ।'
( श्लोक २२७ - २२९) 'इस प्रस्ताव से मैं सम्मत हो गया और जिनालय जाकर दस दिन बाद सात दिनों के लिए पौषध व्रत ग्रहण कर लिया । प्रजागण वैश्रमण की मूर्ति की मानों वह उनका राजा ही है, इस भाँति सेवा करने लगे । कारण ज्ञानी अपने प्रभु के मङ्गल के लिए अन्य प्रभु की भी सेवा करने को तैयार हो जाते हैं । जब सातवां दिन आया तब सचमुच ही दोपहर के समय आकाश में बादल छा गए और बिजली चमकने लगी । प्रलयकालीन मेघ की तरह उस भयंकर मेघ से अकस्मात् बिजली गिरी और उस यक्ष मूर्ति को विदीर्ण कर डाला । यह देखकर पुर- ललनाओं ने नैमित्तिक पर वस्त्र, रत्नादि की वर्षा प्रारम्भ कर दी । वह नैमित्तिक ही श्रेष्ठ है जिसने इस प्रकार मेरी रक्षा कर दी । सह - अलङ्कार मैंने उसे प्रचुर धन देकर बिदा किया । मेरे सङ्कट में सहोदर की भाँति मेरा उपकारी बना यह सोचकर मैंने दिव्य रत्नों से एक अन्य वैश्रवण यक्ष की मूर्ति बनवाकर तत्काल उसे स्थापित करवा दी । इसी उपलक्ष में प्रजावृन्द, मन्त्रीगण और मैं विपदमुक्त होने के कारण महा महोत्सव कर रहे हैं ।'
( श्लोक २३ - २३७) आनन्दित हो गया ।
श्री विजय की कथा सुनकर अमिततेज उसने बहिन सुतारा को खूब वस्त्रालङ्कार दिए और कुछ दिन वहाँ रहकर स्व-नगर को लौट गया ।
राजा श्री विजय भी सुतारा को लेकर आनन्द
ज्योतिर्वन उद्यान में चले गए ।
( श्लोक २३८ )
मनाने के लिए ( श्लोक २३९ )