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देवता, असुर और राजन्यों को खड़े पाया । तब वे सोचने लगे( श्लोक १९५ - १९७ ) यह पवित्र संघ दयाप्रार्थी है, मेरा भाई दुःखी है, ये सब एक साथ मिलकर मेरा क्रोध शान्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं । संघ का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है, पद्म को आश्वस्त करना प्रयोजनीय है । ऐसा सोचकर जिस प्रकार विक्षुब्ध समुद्र के शान्त होने पर तरंगें लौट आती हैं उसी प्रकार मुनि स्व-उच्चता को क्रमशः कम करते-करते पूर्व रूप में लौट आए। संघ के अनुरोध पर मुनि ने नमूची को मुक्त कर दिया । चक्रवर्ती ने नमूची को पदच्युत कर देश निकाला दे दिया । उसी समय से त्रिपाद भूमि चाहने वाले महामुनि विष्णुकुमार त्रिविक्रम नाम से विख्यात हुए । संघ का कार्य कर प्रायश्चित द्वारा चारित्र की उन्होंने शुद्धि आराधना से केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को गए ।
( श्लोक १९८ - २०३ ) महापद्म ने भी संसार भय से भयभीत होकर राज्य को तृणवत् परित्याग कर सद्गुरु से दीक्षा ग्रहण कर ली । उन्होंने ५०० वर्ष युवराज रूप में, ५०० वर्ष शासक रूप में, ३०० वर्ष दिग्विजय में १८७०० वर्ष चक्रवर्ती रूप में और १० हजार वर्ष व्रती रूप में बिताये । महापद्म की इस प्रकार कुल आयु ३० हजार वर्ष की थी । कठिन तपश्चर्या और विभिन्न प्रकार के व्रतों का पालन कर घाती कर्मों को क्षय किया एवं केवल ज्ञान प्राप्त किया ।
( श्लोक २०४ - २०७ )
इस पर्व में दो, जो तीर्थंकर भी थे और चक्रवर्ती भी, दो जिन, दो चक्रवर्ती, दो राम और दो वासुदेव व दो चरित्रों का वर्णन किया गया है । इन चौदह शलाका पुरुषों का यश दिशाओं में परिव्याप्त है— उनके उन्नत चरित्र की गाथा विश्वजनों के कर्ण कुहरों में आतिथ्य ग्रहण करें । ( श्लोक २०८ )
अष्टम सर्ग समाप्त
षष्ठ पर्व समाप्त