________________
२१८]
त्रिभुवन में कोलाहल होते देख इन्द्र ने उन्हें शान्त करने के लिए गायिका देवियों को उनके पास भेजा। वे लोग उनके कानों में जिनवाणी के अनुरूप गीत गांधार राग में अनवरत गाने लगी जिसका भावार्थ था-'क्रोध ही समस्त अनर्थ की जड़ है । क्रोध में मनुष्य भूल जाता है कि उसका कल्याण किसमें है। मृत्यु के पश्चात् असह्य वेदना वाले नरक में वह जाता है।' इस प्रकार गाकर किन्नर कन्याएँ उनका क्रोध शान्त करने के लिए उनके सन्मुख नत्य करने लगीं। विष्णुकुमार ने नमूची को जमीन पर पटक कर-उनके चरण कमलों की जय हो, एक पांव पूर्व समुद्र के किनारे और दूसका पाँव पश्चिम समुद्र के किनारे रखा।
(श्लोक १८३-१८७) ___महापद्म ने जब यह बात सुनी तब वह अपने प्रमाद और मंत्री के अपराध से भयभीत बने तुरन्त वहाँ उपस्थित हुए। अग्रज को भक्ति भाव से वन्दना करते हुए अश्रुजल से उनके चरण कमलों को सिंचित कर बोले- (श्लोक १९८-१९९)
'हे प्रभु आज ही मुझे पिता श्री पदमोत्तर की याद आ रही थी जिनमें अनन्त गुण थे। उनकी जय हो। मैं तो जान ही नहीं पाया कि मेरा दुष्ट मन्त्री पवित्र संघ पर अत्याचार कर रहा है । फिर भी दोषी मैं ही हूं क्योंकि ऐसा दुष्ट मेरा भृत्य है । भृत्य के अपराध के लिए नीति शास्त्र में कहा है-उसमें प्रभु का भी अपराध है। मैं तो आपका भृत्य हूं। कारण, मेरे प्रभु तो आप ही हैं । अतः मेरा अपराध आपको भी लगेगा। आप क्रोध संवरण करें। उस दुष्ट के अपराध से तीनों लोक प्राण भय से भयभीत है। हे महामुनि, हे दयानिधि, आप जिन्हें त्रासित कर रहे हैं उन्हें आश्वस्त करिए।' (श्लोक १८०-१८४)
___ इस प्रकार नानाविध स्तुति कर राजन्य, देव, असुर और चतुर्विध संघ ने मुनि को शान्त किया। उन्होंने तो वह उच्चता प्राप्त की थी जहां मनुष्य का कण्ठ स्वर नहीं पहुंच सकता अतः वे उनकी स्तुति सुन नहीं सके थे; किन्तु जब भक्ति भाव से उन्होंने चरण स्पर्श किया तो मनि ने नीचे की ओर देखा । तो उनके सम्मुख उनका भाई, चतुर्विध संघ,