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को चन्द्र जब श्रवणा नक्षत्र में अवस्थित था, रानी पद्मावती की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ । रात्रि के शेष याम में सुख शय्या पर सोयी हुई उन्होंने तीर्थंकर के जन्म सूचक चौद महा स्वप्न देखे ।
( श्लोक १२४ - १२६) समय पूर्ण होने पर ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी तिथि को चन्द्र जब श्रवण नक्षत्र में अवस्थित था उन्होंने कूर्मलांछन, तमाल से कृष्ण वर्ण युक्त एक पुत्र को जन्म दिया | दिक्कुमारियों के द्वारा उनका जन्म कृत्य सम्पन्न कर देने के पश्चात् इन्द्र इन्हें मेरु पर्वत पर ले गए । शक्र की गोद में बैठे जगदगुरु को तेषठ इन्द्रों ने तीर्थ से लाए पवित्र जल से स्नान करवाया । बाद में ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर शक्र ने उन्हें स्नान करवाया । तदुपरान्त उनकी पूजा कर इस प्रकार स्तुति की( श्लोक १२७-१३०) 'वर्तमान अवसर्पिणी रूप सरिता के श्रेष्ठ कमल रूप आपको भाग्यवश ही बहुत दिनों के पश्चात भ्रमर रूप हमलोगों ने प्राप्त किया है । हे भगवन्, आज मेरे मन वचन काया आपकी पूजा, ध्यान और स्तव पाठ से धन्य हो गये हैं । मेरी भक्ति आप के प्रति जितनी दृढ़ हो रही है मेरे कर्म उतने ही क्षीण हो रहे हैं । हे प्रभु, हम असंयमी का जीवन व्यर्थ हो जाता यदि आपका दर्शन प्राप्त नहीं होता । पुण्योदय से ही यह सम्भव हुआ है । हमारी इन्द्रियां आपका स्पर्श कर, आपका गुणगान कर, जो पुष्प आपको प्रदत्त किए हैं उनका आघ्राण कर, आपके रूप का दर्शन कर, आप के गुणों का श्रवण कर सार्थक हो गए है । वर्षाकालीन मेघ नेत्रों को जिस प्रकार आनन्द देता है उसी प्रकार आप सहित मेरु पर्वत का नीलकान्त मणि श्रृंग हमें आनन्द दे रहा है । हे सर्वतोस्थित आपके भरतवर्ष में रहने पर भी हम जहां भी रहें हमारे कष्ट निवारण के लिए स्मरण करने पर हमारे निकट उपस्थित हो जाते हैं । स्वर्ग से जब हम च्युत होंगे तब आपके चरण का ध्यान करते-करते च्युत हों ताकि भावी जन्म में इस जन्म में किया आपका स्नात्रोत्सव सुकृत रूप में हमारे साथ रहे ।'
( श्लोक १३१ - १३८ )
कर इन्द्र ने उन्हें ले
वीसवें तीर्थंकर की इस प्रकार स्तुति जाकर रानी पद्मावती के पास यथा रीति सुला दिया ।
( श्लोक १३९ )